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म. वी.
अ.१२
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१ इस प्रभुके गमनके मंगलगान देव वंदीगण करते हुए और दूसरे देव गमन करनेके भेरी- पु. भा. १ वाजे बजाते हुए । इंद्रकी आज्ञासे वे देव ऐसी घोषणा करते हुए कि अब यह समय जगत्के स्वामीका मोहादि वैरियोंके जीतनेका है।
हर्पित हुए सुर असुर आकाशको घेरकर उस प्रभुके सामने ऐसा महान् शोर । करते हुए कि हे प्रभो तुम जयवंत हो आनंदयुक्त होवौ और वृद्धिको पाओ । देवेन्द्रोंके । सैकड़ों दुंदुभि वाजे वजने लगे और अप्सरायें विचित्र वेप बनाके नाचने लगीं। किन्नरी देवियां मधुर आवाजसे मोहरूपी शत्रुके जीतनेका यशगान गाने लगी जो कि ६ सुखको देनेवाले हैं। इधर करोड़ों ध्वजा छत्र वगैरः दौड़ने लगे । उस प्रभुके आगे ६ दिक्कुमारी देवियां मंगल अर्घ लेकर चलती हुई।
इस प्रकार वह महावीर प्रभु नगरसे वनको जाता हुआ नगर वासियोंकर ऐसा प्रशंसा किया गया कि हे जगतगुरु सिद्धिके लिये जा शत्रुओंको जीत अपना कार्य कर । आज मार्गमें तेरा कल्याण होवे और करोड़ों कल्याणों का पात्र वन । कैसा वह प्रभु । जिसकी महिमा प्रगट हो रही है प्रकीर्णदेव पंखा कर रहे हैं मस्तकपर सफेद छत्रसे शोभायमान । है और इंद्रोंसे सब तरफ घिरा हुआ है । अयानंतर कितने ही लोक उस प्रभुको ॥८॥ भोगसंपदाको नहीं भोगके तपोवन जाते हुए देख आपसमें ऐसा कहने लगे । अहो ।
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कन्सन्हा