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पु. भा.
अ.११
सुखदुख दोनों ही मालूम होते हैं परंतु ज्ञानियोंको बुद्धिवलसे हमेशा केवल दुःख ही दिखलाई देता है । क्योंकि जो अज्ञानी विषयोंसे उत्पन्न हुए को सुख मानते हैं उसी हूँ विषयसुखको बुद्धिमान नरकादिकका कारण होनेसे अधिक दुःख मानते हैं । द्रव्य क्षेत्र
काल भव भावरूप पांच प्रकारके भ्रमण वाली, दुःख रूपी सिंहोंसे सेवनकी गई इससे है भयानक तथा इंद्रियरूप चोरोंसे भरी ऐसी संसाररूपी वनीमें कर्मरूपी वैरीसे है गला दवाये हुए सब प्राणी रत्नत्रयरूपी वाणके विना वहुत काल तक भ्रमते ( भटके) है हुए भटक रहे हैं और भटकेंगे । संसारमें ऐसे कर्म और शरीरके पुद्गल कोई वाकी ? नहीं रहे कि जिनको भ्रमते हुए इस जीवने न ग्रहण किये हों न छोड़े हों-यह द्रव्य, संसार (भ्रमण ) है । ऐसा लोकाकाशका कोई प्रदेश नहीं वचा कि जिसमें सब संसारी
जीव न उत्पन्न हुए और न मरे हों यह-क्षेत्रसंसार है । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी । , कालका ऐसा कोई समय नहीं वचा कि जिसमें जीवने न जन्म लिया हो और न मरण 9 किया हो-यह काल संसार है । नरकादि चार गतियोंमें ऐसी कोई योनि नहीं वची कि जिसको इस जीवने न ग्रहण किया हो, और न छोड़ा हो-यह भवसंसार है । देखो ये संसारी जीव मिथ्यात्वादि सत्तावन दुष्ट कारणोंसे भ्रमते हुए पाप कर्मोंको हमेशा उपाजन करते हैं-यह भावसंसार है।
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