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अन्य भी जो कुछ वस्तु कर्मसे उत्पन्न हुई है वह सब असलमें अपने आत्मासे जुदी हाही है। इस बाबत बहुत कहनसे क्या फायदा; लेकिन सम्यग्दर्शन ज्ञानादि. आत्ममयी।
गुणों के सिवाय अपना कोई कभी नहीं होसकता । इसलिये हे योगीश्वरो तुम अपने हाज्ञानस्वरूप आत्माको शरीरादिसे जुदा जानकर यत्नसे शरीरके नाश करनेके लिये उस
आत्माका ही ध्यान करो। MAIL अशुचिभावना-जो शरीर रुधिर वीर्यसे पैदा हुआ, रुधिरंआदि सात धातुओंसे
और मलमूत्रादिसे भरा हुआ है ऐसे शरीरकी कोंन उत्तम ज्ञानी सेवा करेगा। देखो जहां || भूख प्यास बुढापा रोगरूपी अग्नियां जला करती हैं उस कायरूपी झोपड़ीमें सत्पुरुषोंको ।
क्या रहना योग्य है कभी नहीं। जिसमें राग द्वेष कषाय कामदेव रूपी सर्प हमेशा रहते हा हैं ऐसे शरीररूपी विलेमें कोनसा श्रेष्ठज्ञानी रहना चाहेगा कोई नहीं । यह पापी शरीर। |आप तो अशुद्ध स्वरूप है ही लेकिन अपने आश्रित सुगंधी वस्त्र आदिकोंको भी दुर्गधित (मैले) करडालता है। जैसे भंगीका टोकरा कहींसे भी अच्छा नहीं दीखता उसी शतरह चाम और हड्डी आदिसे बना हुआ यह शरीर भी सुंदर नहीं दीखता। | जिस शरीरको चाहे पुष्ट करो या सुखाओ अंतमें भस्म (राख) की ढेरी अवश्य ही हो जाइगा, जो ऐसा है तो तपस्यासे शोषण करना ही ठीक है । क्योंकि अन्नादिसे