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हाही सुख मिलसकता है । इसप्रकार धर्मका माहात्म विचार कर संसार शरीरभोगोंको II शक्षणभंगुर तथा निःसार जानके विवेकियोंको चाहिये कि इन तीनोंसे विरक्त होके मोहनी इंद्रियको जीतकर सब · शक्तिसे मोक्षकी प्राप्तिके लिये धर्म करें । इसप्रकार उन मुनिके वचनोंको सुनकर वैराग्यको प्राप्त हुआ वह राजा निर्मल चित्तमें ऐसा विचारता | हुआ-देखो, यह संसार अनंत दुःखोंकी खानि, अंतरहित और आदिरहित है इसमें|||| सज्जनोंको प्रीति कैसे हो सकती है । यदि संसार सब दुःखोंसे भरा हुआ नहीं होता तो सांसारीक सुखोंसे परिपूर्ण तीर्थकर देव मोक्षके लिये उसे क्यों छोड़ते १ । भूख प्यास रोग कामक्रोधादि रूप अग्नि रातदिन शरीररूपी झोंपड़े जला करती हैं वहां धर्मात्मा-|1|| ओंको क्या प्रीति करनी चाहिये ?।
जिस जगह इंद्रियरूपी चोर धर्मादि धनको चुरानेवाले रहते हैं उस शरीरमें|| कोन बुद्धिमान रहना चाहेगा ? जिनके होनेके पहले दुःख और चलेजानेके बादमें दुःखी ऐसे दुःखकी दाह बढानेवाले पराधीन चंचलभोग हैं उनको कौन बुद्धिमान् सेवन | करेगा। जो भोग स्त्रीके और अपने अंगके पीड़न करनेसे उत्पन्न दुःख देनेवाले होते हैं। इसलिये महानपुरुप उनको छोड़ देते हैं तो हीनपुण्यी तुच्छ पुरुपोंको क्या सुख देसकते है, कभी नहीं । अगर अच्छीतरह भोगोंकी साधक इंद्रियसुखके देनेवाली वस्तुका विचार