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की शोभायमान मालूम होता है । उस पडिकवनके बीच में एक चूलिका है वह चालीस ही योजन ऊंची है उसके ऊपर स्वर्ग हैं। मेरुकी ईशान दिशामें सौ योजन लंबी पचास पु. भा योजन चौड़ी आठ योजन ऊंची एक पांडुक नामकी महान् शिला है । वह शिला आधे । अ. चंद्रमाके समान आकारवाली क्षीर समुद्रके जलसे धोई गई है इसलिये अतिपवित्र आठवीं धराकी सिद्धशिलाकी तरह शोभायमान है । छत्र चामर भंगार सांतिया दर्पण कलश ध्वजा ठोंना ये आठ मंगलद्रव्य उस पर रक्खे हुए हैं।
उस शिलाके वीचमें वैडूर्यमणिके समान रंगवाला एक सिंहासन है वह चौथाई ह कोस ऊंचा चौथाई कोस लंवा और उसका आधाप्रमाण चौड़ा है । वह जिन भगवानके हा स्नानसे पवित्र रत्नोंके तेजसे ऐसा मालूम होता है मानों सुमेरुपर्वतकी दूसरी चोटी हो ।
उसकी दक्षिण दिशाकी तरफ सौधर्म इंद्रका दूसरा सिंहासन है और उत्तरदिशाकी तरफ ऐशान इंद्रके बैठनेका सिंहासन है । वह सौधर्म इंद्र परमविभूति महोत्सव करते हुए।
देवोंके साथ तीर्थकर देवको लाकर स्नान करानेके लिये पूर्वदिशाकी तरफ मुख करके & उस प्रभुको वीचके सिंहासनपर विराजमान करता हुआ और देव व चारणमुनियोंसे। ६ सेवित ऐसे उस पर्वतराजकी परिक्रमा देता हुआ ॥
इसप्रकार तीर्थकरके पुण्योदयसे परमविभूतिके साथ समस्त देवेन्द्र अंतिम ॥११॥