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म. वी.
दशवा अधिकार ॥ १० ॥
॥६॥
नमः श्रीवर्धमानाय हताभ्यंतरशत्रवे।
बिजगद्धितकर्ने मूर्धानंतगुणसिंधवे ॥१॥ भावार्थ-जिसने कामक्रोधादि अंतरंग शत्रुओंको जीतलिया है, तीन जगतको हित करनेवाले और अनंत गुणोंके समुद्र ऐसे श्री महावीरस्वामीको मैं नमस्कार )
करता हूं। र अथानंतर कोई देवी धाय वनकर उस श्रेष्ठ वालकको स्वर्गसे लाये गये वस्त्र आर भूषण माला और लेपन द्रव्यसे सजाती हुई। कोई देवियें अनेक तरहके खिलोंने व ? वोलचालसे उस वालकको रमाती ( खिलाती) हुई । कितनी ही देवियें अपने हाथोंको ।
फैलाती हुई 'हे स्वामी यहां आओ' ऐसा बार बार कहती हुई । उस समय वह वालक 2 महावीर कुछ मुसकराता हुआ रत्नोंकी जमीनपर लोटता सुंदर वातें व चेष्टाओंसे मातापिताको , आनंदित करता हुआ । तव उस बालककी शिशु अवस्था ( वचपन ) चंद्रमाकी कलाके ||॥६४॥
समान उज्वल, उत्सवकरनेवाली सब जनोंकर बंदनीक होती हुई । इस प्रभुके मुखरूप
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