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म. वी.
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नवम अधिकार ॥ ९ ॥
. तमथावेष्टय सर्वत्र द्रष्टुकामा महोत्सवम् । जिनेन्द्रस्य यथायोग्यं तस्थुर्धर्मोद्यताः सुराः ॥ १ ॥
अथानंतर जिनेश्वरके महान् उत्सवको देखनेकी इच्छावाले और धर्म में उद्यमी ऐसे देव उस पर्वतराजको सब तरफ से घेरकर अपने २ योग्य स्थानपर बैठते हुए । अपनी २ जातिवालोंके साथ दिक्पालदेव प्रभुकी जन्मकल्याण संपदाको देखने की इच्छा से अपनी २ दिशाओंकी तरफ हर्षित हुए बैठे। वहां पर देवोंने बड़ाभारी मंडप ऐसा बनाया कि जिसमें सब देव सुखसे बैठसकें । उस मंडपमें कल्पवृक्षके फूलोंकी मालायें लटकाई गई थीं उनपर भौंरे गूंजते हुए ऐसे मालूम पड़ने लगे मानों प्रभुके गुण गा रहे हैं ।
. वहां पर गंधर्व देव और किन्नरी देवियें जिनदेवके कल्याणके गुणोंको मधुर आवाजसे गाने लगीं । और दूसरी देवियाँ बहुत हावभाव तथा शृंगारादि रससे भरा हुआ नृत्य करने लगीं । देवोंके अनेक तरहके वाजे वजने लगे । शांतिपुष्ट्यादिकी इच्छा
पु भा.
अ. ९
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