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म. वी.
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तारूप मानको त्याग करना । बुद्धिमानोंको आर्जवधर्म पालना चाहिये । वह आर्जवधर्म मन वचन कायकी कुटिलताके त्यागनेसे तथा तीनोंको सरल रखने से होता है । वैराग्य के कारण सत्य वचन कहने चाहिये. धर्मात्माओंको धर्मके नाशक असत्य वचन कभी नहीं बोलने चाहिये । इंद्रिय अर्थ आदि वस्तुओं में लोभी मनको रोककर निर्लोभ शौच धर्मको पालना चाहिये । जलसे किये गये शौचको धर्मका अंग नहीं समझना चाहिये। सस्थावररूप छह कायके जीवोंकी रक्षा करके और इंद्रिय मनको रोककर धर्मकी सिद्धि के लिये संयमको धारण करना चाहिये । धर्मकी प्राप्ति के लिये अपनी शक्तिके अनुसार बारह प्रकारका तप करना चाहिये । धर्मके कारण ही शास्त्र व अभयदानादिरूप त्याग धर्म पालना चाहिये । धर्मके लिये ही सुखका करनेवाला अकिंचन धर्म पालना चाहिये और वह सव परिग्रहके छोड़नेसे होता है । धर्मके चाहनेवालोंको धर्मका मुख्य कारण ब्रह्मचर्यव्रत बहुत खुशी के साथ सेवना चाहिये, वह ब्रह्मचर्य गृहस्थको तो अपनी स्त्रीके | सिवाय सबका त्यागरूप कहा है और मुनिको सब स्त्रियों के त्यागरूप कहा है ।
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इन सारभूत दशलक्षणों करके जो मोक्षके इच्छुक भव्यजीव मुनिगोचर परमधर्मको धारण करते हैं वे संसारके सब सुखोंको भोग शीघ्र मुक्तिके पति हो जाते हैं । बुद्धिमानोंसे यह धर्म साक्षात् यदि न पल सके तो नाममात्र स्मरण करना चाहिये उसीसे
पु. भा.
अ. ६
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