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पाचवां अधिकार ॥५॥ .
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कर्मारातिविजेतारं वीरं वीरगणाग्रिमम् ।।
वंदे रुद्रकृतानेकपरीषहभरक्षमम् ॥१॥ भावार्थ-कर्मोंको जीतनेवाले रुद्रकर कियेगये अनेक उपसर्गों (संकटों) को सहनेवाले इसीलिये वीरोंमें मुख्य ऐसे महावीर स्वामीको मैं नमस्कार करता हूं। अथानंतर एक दिन हरिपेण महाराज विवेकसे निर्मलचित्तमें विचारते हुए कि मैं कौन हूं, शरीर कैसा है और बंधका कारण यह कुटुंब किसतरहका है । किसतरह मुझे अवि-13, सानाशी सुख होगा कैसे तृष्णा शांत होगी। संसारमें हितकारी और करने योग्य क्या है ? ||
तथा अहित करनेवाला और नहीं करने योग्य क्या है । देखो विचारनेसे अचंभा 8 होता है कि मेरा आत्मा सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्रस्वरूप है और ये शरीरादिक । पुद्गल दुर्गंधवाले अचेतन हैं । इस लोकमें ऊंचे वृक्षपर रातके समय पक्षियोंका समूह मिलकर रहता है उसीतरह अपने २ कार्यमें लगा हुआ यह स्त्री आदि कुटुंब एका कुलमें इकटा हुआ है।
मोक्षके सिवाय दूसरा कोई भी अविनाशी सुख देखनेमें नहीं आता और वह
कसम्म