Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा०६२] मूलपयडिअणुभागउदीरणाए कालो अंतरं च जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अवढि० जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । अवन० जह० उक्क० एगसमओ । एवं मणुसतिये । एवं सत्रणेरइय-सव्वतिरिक्खमणुसअपज्ज०-सव्वदेवा त्ति । णवरि अवन० णत्थि । एवं जाव० ।
६७. अंतरांणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण पंचवड्डि-हाणिअवडि. जह० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अगंतगुणवडि-हाणि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अवच० भुज. भंगो । एवं तिरिक्खा० । णवरि अवच० पत्थि ।
६८. आदेसेण णेरइय० पंचवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एगस०, उक्क० तेचीसं सागरो० देसूणाणि । अणंतगुणवड्डि-हाणि ओघं । एवं सव्वणेरइय० । णवरि सगद्विदी देसूणा। पंचिंदियतिरिक्खतिये पंचवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एगस०, उक्क. सगहिदी देसू० । अणंतगुणवड्डि-हाणि. ओघं । एवं मणुसतिए । णवरि अवन० भुज भंगो। पंचि०तिरिक्खअप०-मणुसअप० छवड्डि-हा०-अवढि० जह
ख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्त गुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है
और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
- $ ६७. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। अनन्त गुणवृद्धि और अनन्त गुणहानिका जघन्य पन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका भंग भुजगारके समान है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है।
६८. आदेशसे नारकियोंमें पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थित पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरप्रमाण है । अनन्त गुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति करनी चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें पाँच वृद्धि, पाँच हानि और अवस्थित पदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । अनन्त गुणवद्धि और अनन्त गुणहानिका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपदका भंग भुजगारके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदका अपन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । देवोंमें नारकियोंके