Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ वेदगो७ $ ४४२. अप्पाबहुअं दुविहं-जह० उक्क । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक० सव्वत्थोवा उक्क० वड्डी । अवट्ठा० विसे । हाणी विसेसा० । सम्म०-सम्मामि० सव्वत्थोवा उक्क० हाणी। उक्क० अवट्ठा० तत्तियं चेव । उक्क० वड्डी अणंतगुणा । णवणोक० सव्वत्थोवा उक्क० वड्डी। हाणी अवट्ठा० विसे० । सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेवा त्ति सम्म०-सम्मामि० ओघं । सेसपय० सव्वत्थोवा उक्क० वड्डी । हाणी अवट्ठा० विसे० । एवं जाव० ।
४४३. जह० पयदं। दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सम्म०-सम्मामि०-बारसक० सव्वत्थोवा जह० हाणी। जह० वड्डी अवट्ठा० अणंतगुणा । चदुसंजल०-णवणोक० सव्वत्थोवा जह० हाणी । जह० वड्डी अणंतगुणा । जह० अवट्ठा० अणंतगुणा । एवं मणुसतिये । णवरि वेदा जाणियव्वा ।
$४४४. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-अणंताणु०४-सम्म०-सम्मामि० ओघं । बारसक०-सत्तणोक० जह० वड्डी हाणी अवट्ठा० तिण्णि वि सरिसाणि । एवं सव्वणेर० । णवरि विदियादि सत्तमा ति सम्म० जह० वड्डी हाणी अवट्ठा० तिण्णि वि सारिसाणि ।
$ ४४२. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है । उससे उत्कृष्ट अवस्थान विशेष अधिक है। उससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है। उत्कृष्ट अवस्थान उतना ही है। उससे उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुणी है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान विशेष अधिक है। सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सव देवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंको उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान विशेष अधिक है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
४४३. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। उससे जघन्य वृद्धि और जघन्य अवस्थान अनन्तगुणे हैं । चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है । उससे जघन्य वृद्धि अनन्तगुणी है। उससे जघन्य अवस्थान अनन्तगुणा है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जानना चाहिए।
४४४. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। बारह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तीनों ही सदृश हैं। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तीनों हो सदृश हैं।