Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ६२ ]
उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए अप्पाबहुअं
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चादो । किंतु सा एका पयडी उदीरिजमाणा उदयपडिभागेणुदीरिजदि ति भणामो । कुंदो ? उदयानुसारेणेव सव्वत्थोदीरणाए पवृत्तिअब्भुवगमादो ।
* सम्मामिच्छत्तमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा असंखेज्जगुणा ।
$ २६३. कुदो ? परिणामपाहम्मादो । तं जहा - अनंताणुबंधीणं मिच्छाइट्ठिविसोही उक्कस्सिया पदेसुदीरणा जादा । सम्मामिच्छत्तस्स पुण तव्विसोहीदो अनंतगुणसम्मामिच्छाट्ठिविसोहीए उक्कस्सिया पदेसुदीरणा गहिदा । एदेण कारणेण पुव्विल्लादो एदिस्से असंखेज्जगुणत्तं जादं ।
* अपच्चक्खाणचउक्कस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला असंखेज्जगुणा ।
$ २६४. एत्थ वि परिणाममाहप्पमेवासंखेजगुणत्ते कारणमवगंतव्वं, पुव्विल्लसम्मामिच्छाइट्ठिविसोही दो अनंतगुणसंजमाहिमुहचरिमसमयासंजदसम्माइट्ठिसव्वुक्कस्सविसोहीए अपच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्ससामित्तदंसणादो ।
कर जाती हैं, इसलिए मिथ्यात्वके उदयसे अनन्तानुबन्धीका उदय कुछ कम चौगुना होता है, क्योंकि प्रकृतिविशेष वश वहाँ कुछ ऊनपना देखा जाता है । इस प्रकारका उदय है ऐसा समझ कर उदीरणा भी उस प्रतिभागके अनुसार ही होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
शंका—यहाँ पर शंकाकार कहता है कि उदय चौगुना होओ, क्योंकि स्तिवुक संक्रमके बलसे वह उस प्रकार बन जाता है । परन्तु उदीरणाका उस प्रकारसे बनना सम्भव नहीं है, क्योंकि एक उदय प्रकृतिके सिवाय शेष प्रकृतियोंकी उदीरणाका अत्यन्त अभाव देखा जाता है ? समाधान — यह कहना सत्य है कि एक ही वेदी जाननेवाली प्रकृतिक उद होती है यह स्वीकार करते हैं । किन्तु वह एक प्रकृति उदीर्यमाण होती हुई उदयप्रतिभाग अनुसार उदीरित होती है ऐसा हम कहते हैं, क्योंकि उदयके अनुसार ही सर्वत्र उदीरणाकी प्रवृत्ति स्वीकार की गई है ।
* उससे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है ।
$ २६३. क्योंकि इसका कारण परिणाममाहात्म्य है । यथा – मिथ्यादृष्टिकी विशुद्धिके कारण अनन्तानुबन्धियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा हुई है । परन्तु उस विशुद्धिसे सम्यग्मिथ्यादृष्टिकी अनन्तगुणी विशुद्धिवश सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा ग्रहण की गई । इस कारण से पूर्वकी उदीरणासे यह असंख्यातगुणी हो जाती है ।
* उससे अप्रत्याख्यान चतुष्कमेंसे अन्यतर प्रकृतिकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणी है ।
$ २६४. यहाँ भी परिणाममाहात्म्य ही असंख्यातगुणे होने में कारण जानना चाहिए, क्योंकि पूर्वकी सम्यग्मिध्यादृष्टिकी विशुद्धिसे संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टिकी अनन्तगुणी सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिवश अप्रत्याख्यान कषायोंका उत्कृष्ट स्वामित्व देखा जाता है ।
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