Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 320
________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए भुजगारो णस्स किंचि अत्थपरूवणमुच्चारणाइरिओवएसबलेण कस्सामा । तं जहा ९३०३. भुजगारो ति तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि - समुक्कित्तणा जाव अप्पाचहुए ति । समुक्कित्तणाए दुविहो णिमो - ओघेण आदेसेण य | ओघेण सव्वपयडी० अस्थि भुजगार० अप्पदर० अवट्ठि० अवत्त० । ३०१ 1 ३०४. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० सम्म० - सम्मामि० - सोलसक० - सत्तणोक० ओघं । णवरि णव स० अवत्त० णत्थि । एवं सव्वणिरय० । तिरिक्खेसु ओघं० । एवं पंचिदियतिरिक्खतिये । णवरि वेदा जाणियव्वा । जोणिणीसु इत्थिवेद० अवत्त० णत्थि । पंचि०तिरिक्ख अपज्ज० --मणुस अपज० मिच्छ० -- ण स ० ओघं । णवरि अवत्त० णत्थि । सोलसक० छण्णोक० ओघं । मणुसतिये ओधं । णवरि वेदा जाणियव्वा । ३०५. देवेसु ओघं । णवरि ण स ० णत्थि । इत्थिवेद - पुरिसवेद० अवत्त ० णत्थि । एवं भवणादि जाव सोहम्मीसाणे त्ति । एवं सणक्कुमारादि णवगेवज्जा त्ति । raft इत्थवेदो णत्थि । अणुद्दिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म० बारसक० - सत्तणोक ० आणदभंगो | एवं जाव० । हुए तथा पदनिक्षेप और वृद्धिप्ररूपणाको अपने भीतर गर्भित कर स्थित हुए भुजगार अनुयोगद्वारका कुछ विशेष व्याख्यान उच्चारणाचार्यके उपदेशके बलसे करेंगे । यथा ९ ३०३. भुजगार इस अनुयोगद्वार में ये तेरह अनुयोगद्वार जानने चाहिए - समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियों की भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य प्रदेश उदीरणा है । 1 $ ३०४. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायों का भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेदका अवक्तव्यपद नहीं है । इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । तिर्यों में ओघके समान भंग है । इसी प्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वेद जान लेने चाहिए । तिर्यञ्चयोनिनियोंमें स्त्रीवदका अवक्तव्य पद नहीं है । पञ्च न्द्रिय तिर्य अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व और नपुंसकवेदका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनका अवक्तव्यपद नहीं है । सोलह कषाय और छह नोकषायका भंग ओघके समान है । मनुष्यत्रिक में ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि वेद जान लेने चाहिए । $ ३०५. देवोंमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसक वेद नहीं है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदका अवक्तव्य पद नहीं है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक के देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनतकल्पके समान है। इसी प्रकार अनाहारका तक जानना चाहिए ।

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