Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 383
________________ ३६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ * बंधो असंखे जगुणो । ९४०६. किं कारणं ? सुहु मणिगोदजहण्णोववादजोगेण बद्धसमयपबद्धपमाणत्तादो । एत्थ गुणगारो अंगुलस्सासंखेज्जदिभागमेत्तो । * उदयो असंखेज्जगुणो । $ ५०७. किं कारणं ? इत्थवेद - अरदि - सोगाणं खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण देसूणपुञ्चकोडिं संजमगुणसेढिणिज्जरमणुपालिय तदो समयाविरोहेण वैमाणियदेवेसु देवेसु च जहाकममुप्पण्णस्स अपजत्तद्धं बोलाविय उक्कस्ससंकिलेसं गंतूण परिभग्गस्सावलियपडिभग्गावत्थाए उदयगदगोवच्छं घेत्तूण जहण्णसामित्तावलंबणादा । णवुंसयवेदस्स वि तेणेव लक्णणेणागंतूण अपच्छिमे मणुसभवग्गहणे देणपुव्वकोडिं संजमगुणसेटिणिञ्जरमणुपालिय तदो अंतोमुहुत्तावसेसे मिच्छत्तं गंतूण दसवस्ससहस्साउअदेवेसुववज्जिय सव्वलहुं पञ्जत्तयदभावेण सम्मत्तं पडिवजिय पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे जीवि - दव्वए त्तिमिच्छत्तं गंत्तूण संकिलेसमावरिय एइंदिएसुदवण्ण- पढमसमए वट्टमाण जीवम्मि तक्कालपडिबद्धउदय गदगो वुच्छावलंबणेण जहण्णसामित्त - विहाणादो । एत्थुदयगदगोवुच्छदव्त्रं जड़ वि सव्वपयत्तेण जहण्णीकयं तो वि एइंदिय-परिणामजोगेण बद्धजहण्णसमयपत्रद्धमेत्तमत्थि खविदकम्मंशियसंचयगोकुच्छाणं जहाखयागदाणं पि तप्पमाणत्तोवएसादो । तदो पुव्विल्लादो उववादजोगेण बद्धजह - * उससे बन्ध असंख्यातगुणा है । $ ५०६. क्योंकि वह सूक्ष्म निगोदके जघन्य उपपाद योगसे बद्ध समयप्रबद्धप्रमाण है । यहाँ गुणकार अंगुल असंख्यातवें भागप्रमाण है । * उससे उदय असंख्यातगुणा है । $ ५०७. क्योंकि क्षपितकर्माशिकलक्षणसे आकर कुछ कम एक पूर्वकोटि कालतक संयमगुणश्रेणिनिर्जराका पालनकर तदनन्तर समयके अविरोधपूर्वक वैमानिक देवों और देवों में क्रमसे उत्पन्न हुए तथा अपर्याप्तकालको वितानेके बाद तथा उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्तकर प्रतिभग्न हुए जीवके एक आवलि कालतक प्रतिभग्न अवस्थाके प्राप्त होनेपर उदयगत गोपुच्छको ग्रहणकर स्त्रीवेद, अरति और शोकके जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है। तथा इसी लक्षणसे अन्तिम मनुष्य भव में कुछकम एक पूर्वकोटि कालतक संयमसम्बन्धी गुणश्रेणिनिर्जराका पालनकर तदनन्तर अन्तर्मुहुर्त काल शेष रहनेपर मिथ्यात्व में जाकर तथा दशहजार आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर पर्याप्त होनेके बाद अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्तकर पुनः जीवन में अन्तर्मुहुर्त काल शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्तकर और संक्लेशको आपूरित कर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें विद्यमान जीवके तत्काल प्रतिबद्ध उदयगत गोपुच्छाका अवलम्बन लेकर नपुंसकवेदके जघन्य स्वामित्वका विधान किया है। यहाँ पर उदयगत गोपुच्छासम्बन्धी द्रव्य यद्यपि सब प्रकारके प्रयत्नसे जघन्य किया है तो भी एकेन्द्रिय जीवके परिणामयोगसे बद्ध जघन्य समयप्रबद्धप्रमाण है, क्योंकि क्षपितकर्मांशिक जीवके यथा क्रमसे क्षयको प्राप्त हुई संचयगोपुच्छाओंके तत्प्रमाण होनेका उपदेश है। इसलिए पूर्वके उपपाद योगद्वारा बद्ध जघन्य समय

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