Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
गो० ६२] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए एयजीवेण अंतरं
२४३ ६१६०. तिरिक्खेसु मिच्छ०-अणंताणु४ ओघं । णवरि अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि देसणाणि । सम्म०-सम्मामि० ओघं । अपच्चक्खाण०४ ओघ । अणुक्क० जह• अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । अट्ठक०-छण्णोक० उक्क० पदे० जह० एयस०, उक्क० अद्धपोग्गल० देसूणं । अणुक्क० जह० एगस०, एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम तेतीस सागरोपमके अन्तरसे प्राप्त होना सम्भव है, इसलिए तो यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम कहा है। तथा इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है यह स्पष्ट ही है। मात्र हास्य, रति और नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके उत्कृष्ट अन्तरकालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि सातवें नरकमें निरन्तर अरति और शोककी उदीरणा होती रहे यह सम्भव है, इसलिए जो जीव सातवें नरकमें उत्पन्न होनेके बाद यथायोग्य उसके प्रारम्भ और अन्तमें हास्य और रतिका उदीरणा करता है और मध्यमें अरति-शोककी कुछ कम तेतीस सागरोपम काल तक उदीरणा करता रहता है उसकी अपेक्षा सामान्य नारकियोंमें हास्य और रतिके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम बन जानेसे वह तत्प्रमाण कहा है। तथा नरकमें नपुंसकवेदकी निरन्तर उदीरणा होती रहती है, इसलिए यहाँ इसके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके जघन्य और उत्कृष्ट कालको ध्यानमें रख कर अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। सातवें नरकमें सम्यक्त्वको छोड़ कर अन्य सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका यह अन्तरकाल इसी प्रकार बन जाता है, इसलिए उसे सामान्य नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र सातवें नरकमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते, इसलिए वहाँ सम्यक्त्वका भंग हास्य और रतिके समान बन जानेसे उसके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको हास्य और रतिके एतद्विषयक अन्तरकालके समान जाननेकी सचना की है। दूसरी पृथिवीसे लेकर छटी पृथिवी तकके नारकियोंमें अन्य सब प्ररूपणा सातवीं पृथिवीके समान ही है। मात्र दो बातोंमें फरक है। एक तो इनकी अपनी-अपनी भवस्थिति जुदी-जुदी है, इसलिए जहाँ जो उत्कृष्ट स्थिति हो, कुछ कम तेतीस सागरोपमके स्थानमें कुछ कम वह कहनी चाहिए। दूसरे सातवें नरकमें अरति और शोकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट जो अन्तरकाल प्राप्त होता है वह इन नरकोंमें हास्य और रतिका बन जानेके कारण उसे अरतिके समान कहना चाहिए। पहली पृथिवीमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए । मात्र उसमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मर कर उत्पन्न हो सकता है, इसलिए उसमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल प्राप्त नहीं होनेसे उसका निषेध किया है। शेष सष्ट ही है।
5 १६०. तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके अनुकृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुल कम तीन पल्योपम है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। अत्याख्यानचतुष्कका भंग ओघके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। आठ कषाय और छह नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और