Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
१७७
गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए वड्डीए अप्पाबहुअं सत्तणोक० पंचवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एयस०, उक्क० असंखेजा लोगा । सेसपदा० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो।
४७८. देवाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि णस० णत्थि । इथिवेदपुरिसवेद० अवत्त० पत्थि । एवं भवणादि सोहम्मा त्ति । एवं सणकुमारादि णवगेवजा ति । णवरि इथिवेदो पत्थि । अणुदिसादि सव्वट्ठा ति सम्म० अवत्त० जह० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं सबढे पलिदो० संखे०मागो। अणंतगुणवड्डि-हाणी. णत्थि अंतरं । सेसपदा० जह० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा । एवं बारसक०सत्तणोक० । णवरि अवत्त० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । पुरिसवे. अवत्त. णत्थि । एवं जाव०।
६४७९. भावाणु० सव्वत्थ ओदइओ भावो ।
5 ४८०. अप्पाबहुआणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-णवुस० सव्वत्थोवा अवत्त । अवढि० अणंतगुणा । अणंतभागवडि-हाणि. दो वि सरिसा असंखे गुणा । असंखे भागवड्डि-हाणि० दो वि सरिसा असंखे०गुणा । के उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
४७८. देवोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है। तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अवक्तव्य उदीरणा नहीं है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है तथा सर्वार्थसिद्धिमें पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि अनुभागके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। शेष पद-अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार बारह कषाय और सात नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। यहाँ पुरुषवेदकी अवक्तव्य अनुभाग-उदीरणा नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
$ ४७९. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है।
$ ४८०. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि अनुभागके उदीरक जीव परस्पर दोनों ही सदृश होकर असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि अनुभागके उदीरक जीव परस्पर दोनों ही सदृश होकर असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि अनुभागके उदी