Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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२०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ वेदगो 5 ६४. पदणिक्खेवो वड्डी वि जाणिऊण भाणियव्वा ।
एवं मूलपयडिपदेसुदीरणा समत्ता । * तदो उत्तरपयडिपदेसुदीरणा च समुचित्तणादि अप्पाबहुअंतेहि अणिओगद्दारेहि मग्गियव्वा।।
६५. तदो मूलपयडिपदेसुदीरणविहासणादो अणंतरमिदाणिमुत्तरपयडिपदेसुदीरणा समुक्त्तिणादि अप्पाबहुअपजतेहि अणिओगद्दारेहि विहासियव्वा त्ति भणिदं होइ । एत्थ ताव सामित्तादो हेडिमाणमणियोगद्दाराणं सुगमत्तादो चुण्णिसुत्तयारेण मुत्तकंठमपरूविदाणमुच्चारणामुहेण विवरणं कस्सामो। तं जहा
६६. समुक्त्तिणा दुविहा—जह० उक्क० । उक्स्से पयदं । दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । ओघेण अट्ठावीसं पयडीणं अत्थि उक्क० पदेसुदीरणा । सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेवा ति अप्पप्पणो पयडी० अत्थि उक्क० पदेसुदीरणा । एवं जाव० । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । एवं जाव ।
६४. पदनिक्षेप और वृद्धिका भी जान कर कथन कराना चाहिए।
इस प्रकार मूल प्रकृति पदेश उदीरणा समाप्त हुई। * इसके बाद समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पवहुत्व तकके अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे उत्तरप्रकृतिप्रदेश उदीरणाका विशेष व्याख्यान करना चाहिए।
६५. 'तदो' अर्थात् मूलप्रकृतिप्रदेश उदीरणाके व्याख्यानके बाद इस समय उत्तरप्रकृतिप्रदेशउदीरणाका समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तकके अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे विशेष व्याख्यान करना चाहिए यह उक्त सूत्रवचनका तात्पर्य है । यहाँ स्वामित्वसे पूर्व के अनुयोगद्वार सुगम होनेसे सूत्रकारके द्वारा मुक्तकण्ठ होकर नहीं गये हैं, इसलिए उच्चारणा द्वारा उनका व्याख्यान करेंगे। यथा
६६६. समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उस्कृष्ट प्रदेश उदीरणा है। सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देव इनमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इसी प्रकार जघन्य समुत्कीर्तना भी जाननी चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ-नारकियोंमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदय-उदीरणा सम्भव नहीं। तिर्यश्च अपर्याप्तकों और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदय-उदीरणा नहीं होती। ऐशान कल्प तकके देवोंमें नपुंसकवेदको उदय-उदीरणा नहीं होती । आगे नौवें अवेयक तकके देवोंमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उदय-उदीरणा नहीं होती तथा नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानवासी देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उदय-उदीरणा नहीं होती। इनके सिवाय जहाँ जितनी प्रकृतियाँ