Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ६२ ]
उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए सामित्तं
जादं । एत्थ वुण तव्विसोहीदो अनंतगुणसंजमाहिमुहचरिमसमयसंजदासंजदविसोहीए उक्कस्ससामित्तमिदि एत्तियो मेदो सुत्तणिद्दिट्ठो दट्ठव्वो ।
* कोहसंजलणस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ।
८४. सुगमं ।
* खवगस्स चरिमसमयकोधवेदगस्स ।
९ ८५. एत्थ खवगणिद्देसो अक्खवगपडिसेहफलो । किमहं तप्पडिसेहो कीरदे १ ण, हेट्ठिमासेस विसोहीओ पेक्खियूणानंतगुणाए खवगविसोहीए असंखेजाणं समयपबद्धाणमुदीरणं घेत्तणे पयदसामित्तविहाणङ्कं तप्पडिसेहकरणादो | दुचरिमादिसमय कोहवेदगपडिसेहट्टं चरिसमयको हवेदगस्से ति णिद्देसो । तदो अण्णदरकम्मंसियलक्खणेणागंतूणण दर वेद-कोह संजलणाणमुदएण खवगसेढिमारुहिय कोहसंजलणपढमट्ठिदि पढमविदिय-तदियसंग किट्टवेदगकालाणुसंधाणेण लद्धमाहप्पं थोवावसेसं गालिय जाधे समयाहियावलियमे तपढमट्ठिदीए चरिमसमयको वेदगभावेणावद्विदो ताधे तस्स पढमट्ठिदिचरिमगुणसेढिगोकुच्छादो उदीरिजमाणासं खेज्जसमयपवद्धे घेत्तूण पयदसा मित्तसंबंधो aai in अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त हुआ है, किन्तु यहाँ उस विशुद्धिकी अपेक्षा संयम अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती संयतासंयतकी अनन्तगुणी विशुद्धिसे उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त हुआ है इस प्रकार सूत्रमें निर्दिष्ट किया गया इतना ही भेद जानना चाहिए ।
* क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ।
$ ८४. यह सूत्र सुगम है ।
* अन्तिम समयवर्ती क्रोधवेदक क्षपकके होती है ।
$ ८५. यहाँ सूत्रमें क्षपक पदके निर्देशका फल अक्षपकका निषेध करना है । शंका-उसका निषेध किसलिए करते हैं ?
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समाधान -- नहीं, क्योंकि नीचेकी समस्त विशुद्धियोंको देखते हुए उनसे अनन्तगुणी क्षपकसम्बन्धी विशुद्धिसे असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणाको ग्रहण कर प्रकृत स्वामित्वका विधान करनेके लिए उसका प्रतिषेध किया है। तथा द्विचरम आदि समयवर्ती क्रोधवेदकका प्रतिषेध करनेके लिए 'चरमसमयकोह वेद्गस्स' इस पदका निर्देश किया है । इसलिए अन्यतर कर्माशिक लक्षणसे आकर, अन्यतर वेद और क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर आरोहण कर तथा प्रथम, द्वितीय और तृतीय संग्रहकृष्टिके वेदककालके अनुसन्धान द्वारा जिसने माहात्म्य प्राप्त किया है ऐसी क्रोधसंज्वलनसम्बन्धी प्रथम स्थितिके कुछ भागको छोड़कर शेष सब भागको गलाकर जब एक समय अधिक एक आवलिमात्र प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें क्रोधवेदकभावसे अवस्थित होता है तब उसके प्रथम स्थिति सम्बन्धी अन्तिम गुणश्रेणि
१. ता०प्रतौ - मुदीरणं च घेण इति पाठः । २, आ०प्रतौ - विदियसंगह - इति पाठः ।