Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ६६ 1
उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए पदणिक्खेवे सामित्त
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दुर्गुछ० । नवरि सत्तमपुढबीए रइयस्स भाणिदव्वं । एवं हस्स - रदीणं । णवरि सहस्सारे देवरस माणिदव्वं ।
९ ४२८. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०- सोलसक० - सत्तणोक० उक्क० वड्डी कस्स १ अण्णद० जो तप्पा ओग्गजह० अणुभागमुदोरेंतो उक्कस्ससंकिलेस गदी तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स १ अण्णद० जो उक० अणुभागमुदीरेंतो तप्पा ओग्गविसोहिए पदिदो तस्स उक० हाणी । तस्सेव से काले उक० अवट्ठा० । णवरि ण स - अरदिसोग-भय- दुगुंछा० सत्तमाएं णेरइयस्स भाणिदव्वं । सम्म० - सम्मामि० ओघं । एवं सवणेरइय० ।
९ ४२९. तिरिक्खेषु मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० - सम्म० - संम्मा मि० पढमाए भंगो । इत्थवे० - पुरिसवेद० ओघं । एवं पंचिदियति रिक्खतिये । णवरि वेदा जाणिव्वा । पंचिदियतिरिक्ख अपअ० - मणुस अपज० मिच्छ० - सोलसक० सत्तणोक० पंचिदियतिरिक्तभंगो । णवरि तप्पा ओग्गसंकिलेस - विसोही भाणियव्वा । मणुसतिये पंचिदियतिरिक्खतियभंगो' । णवरि इन्थिवेद - पुरिसवेद० मिच्छत्तभंगो ।
$ ४३०. देवेषु मिच्छ० - सोलसक० - सम्म० - सम्मामि ० - इत्थि वेद - पुरिसवेद
कि सातवीं पृथिवीके नारकीके कहलाना चाहिए। इसी प्रकार हास्य और रतिकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सहस्रार कल्पके देवके कहलाना चाहिए ।
$ ४२८. आदेशसे नारकियोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? तत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ उसके उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव तत्प्रायोग्य विशुद्धिको प्राप्त हुआ उसके उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। तथा उसीके तदनन्तर समय में उनका उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा सातवीं पृथिवीके नारकीके कहलाना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए ।
$ ४२९. तिर्यों में मिध्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग पहली पृथिवीके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग ओघके समान है । इसी प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना अपना वेद: जान लेना चाहिए। पचेन्द्रिय तिर्यन अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग पचेन्द्रिय तिर्यक्वोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तत्प्रायोग्य संक्लेश और विशुद्धि कहलानी चाहिए । मनुष्यत्रिकमें पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग मिध्यात्वके
समान है । § ४३०. देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, श्रीवेद, पुरुषवेद: अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भंग सामान्य मनुष्योंके समान है । हास्य और रतिका १. आ०प्रतौ -तिरिक्खभंगो इति पाठः ।