Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सामित्तं
४७ सामित्तणिवारणफलो । सव्वाहिं पजत्तीहिं पज्जत्तयदस्से ति विसेसणं सण्णिपंचिंदियलद्धिअपजत्तएसु णिव्वत्तिअपजत्तएसु वा पयदसामित्तसंभवाभावपदुप्पायणट्ठ। तदो सण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिपञ्जत्तयस्सेव पयदुक्कस्ससामित्तं होइ, णाण्णस्से त्ति सिद्धं । तस्स वि सव्वुक्कस्सो जो पज्जवसाणसंकिलेसपरिणामो तेणेव परिणदस्स मिच्छत्तुक्कस्साणुभागुदीरणा होदि, णाण्णस्से त्ति जाणावणट्ठमुक्कस्ससंकिलिट्ठस्से त्ति भणिदं । किमट्ठमण्णजोगववच्छेदेण सव्यसंकिलिट्ठस्सेव पयदसामित्तणियमो ? ण, मंदसंकिलेसेण विसोहीए वा परिणदस्स सब्बुक्कस्साणुभागुदीरणाणुववत्तीदो । तदो उक्कस्साणुभागसंतकम्मट्ठाणचरिमफद्दयचरिमवग्गणाविभागपडिच्छेदे उक्कस्ससंकिलेसवसेण थोवयरे चेव हाइदणे तप्पाओग्गहेडिमाणंतगुणहीणचउट्ठाणाणुभागसरूवेण उदीरेमाणस्स सण्णिपंचिंदियपजत्तमिच्छादिहिस्स उक्कस्सयं मिच्छत्ताणुभागुदीरणासामित्तं होदि त्ति एसो सुत्तत्थसमुच्चयो। एत्थ उक्कस्साणुभागसंतकम्मादो चेव उक्कस्साणुभागुदीरणा होदि त्ति पत्थि णियमो, किंतु तप्पाओग्गाणुक्कस्साणुभागसंतकम्मेण वि उक्कस्साणुभागुदीणाए होदव्वं, अण्णहा थावरकायादो आगंतूण तसकाइएसुप्पण्णस्स सव्वकालमुक्कस्साणुभागसंतकम्मुप्पत्तीए अभावप्पसंगादो । तं जहाकिया है। संज्ञी पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकों या नित्यपर्याप्तकोंमें प्रकृत स्वामित्वकी सम्भावना नहीं है इस बातका कथन करनेके लिए सूत्रमें 'सव्वाहिं पज्जत्तीहिं पज्जत्तयदस्स' यह विशेषण दिया है। इससे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय निर्वत्ति पर्याप्तके ही प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, अन्यके नहीं यह सिद्ध हुआ । उसमें भी सर्वोत्कृष्ट जो अन्तिम संक्लेश परिणाम है उससे ही परिणत हुए उस जीवके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है, अन्यके नहीं इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'उक्कस्ससंकिलिट्ठस्स' यह वचन कहा है।
शंका—अन्ययोगके व्यवच्छेद द्वारा सबसे उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवालेके ही प्रकृत स्वामित्वका नियम किसलिए किया है ?
___ समाधान नहीं, क्योंकि मन्द संक्लेश या विशुद्धिरूपसे परिणत हुए जीवके सर्वोत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा नहीं बन सकती।
इसलिए उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मस्थानके अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके अविभाग प्रतिच्छेदोंको उत्कृष्ट संक्लेशवश अति स्वल्प घटाकर तत्प्रायोग्य अधस्तन अनन्त गुणहीन चतुःस्थान अनुभागस्वरूपसे उदीरणा करनेवाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्यात्वकी अनुभाग उदीरणाका उत्कृष्ट स्वामित्व होता है यह इस सूत्रका समुच्चय अर्थ है । यहाँ उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मसे ही उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होती है ऐसा नियम नहीं है, किन्तु तत्प्रायोग्य अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मसे भी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा होनी चाहिए, अन्यथा स्थावरकायमें से आकर त्रसकायिकोंमें उत्पन्न हुए जीवके सर्वदा उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मको उत्पत्तिका अभाव प्राप्त होता है। यथा
१. आ. प्रतौ सव्वाहिं पजत्तयदस्से त्ति इति पाठः। २, आ प्रतौ थोवरे चेव होदूण इति पाठः, ता:प्रतौ शोवयरे चेव होइदूण इति पाठः।