Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ वेदगो ७ अधुवा । आदेसेण णेरइय० सव्वपयडीणं उक्क० अणुक्क० जह. अजह० सादि०अधुवा वा । एवं जाव० ।
* एगजीवेण सामित्त । $ १०४. एत्तो एगजीवेण सामित्तमहिकयं दट्ठव्वमिदि अहियारसंभालणवक्कमेदं । * तं जहा।
$ १०५. सुगमं । तं च सामित्तं दुविहं । जह० उक्क०–तत्थुक्कस्ससामित्ताणुगमो ताव कीरदे । तस्स दुविहो णिद्देसो ओघादेसभेदेण । तत्थोघपरूवणट्ठमाह
* मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स ? $ १०६. सुगमं ।
* मिच्छाइहिस्स सणिणस्स सव्वाहिं पजत्तीहिं पज्जत्तयदस्स उक्कस्ससंकिलिहस्स। ___$१०७. एत्थ मिच्छाइट्ठिणिद्देसो सेसगुणट्ठाणेसु पयदसामित्तसंभवासंकाणिवारणफलो । सण्णिस्से त्ति णिदेसो असण्णिपंचिंदियप्पहुडि हेट्ठिमासेसजीवसमासेसु पयदजघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा सादि और अध्रुव है । इसी प्रकार अनाहारक मागेणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ-आगे उत्कृष्ट और जघन्य स्वामित्वका जो कथन किया है उससे स्पष्ट है कि मिथ्यात्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट,, अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग उदीरणा सादि और अध्र व होती है। किन्तु अजघन्य अनुभाग उदीरणा सादि आदि चारों प्रकारकी होती है । शेष कथन सुगम है।
* अब एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वका अधिकार है । . १०४. यहाँसे एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वका अधिकार जानना चाहिए इस प्रकारः अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह वचन है।
* यथा
$ १०५. यह सूत्र सुगम है। वह स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उसमें सर्व प्रथम उत्कृष्ट स्वामित्वका अनुगम करते हैं-ओघ और आदेशके भेदसे उसका निर्देश दो प्रकारका है । उनमेंसे ओघका कथन करनेके लिए कहते हैं
* मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $ १०६. यह सूत्र सुगम है।
* सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त तथा उत्कृष्ट सक्लेशको प्राप्त हुए सजी मिथ्यादृष्टिके होती है।
$ १०७. यहाँ पर शेष गुणस्थानों में प्रकृत स्वामित्वकी सम्भावनाकी आशंकाका निराकरण करनेके लिए 'मिथ्यादृष्टि' पदका निर्देश किया है । असंज्ञी पञ्चेन्द्रियसे लेकर नीचेके समस्त जीवसमासोंमें प्रकृत स्वामित्वका निवारण करनेके लिए सूत्रमें 'संज्ञी' पदका निर्देश