Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ वेदगो ७ अजह० विट्ठाणि० तिहाणि चउट्ठाणि । सम्म०-सम्मामि० ओघ । एवं पढमाए । विदियादि जाव सत्तमा त्ति एवं चेव । णवरि सम्म० जह० अजह• विट्ठाणि । १ . 5. ९८. तिरिक्खेसु मिच्छ ०-सोलसक०-णवणोक० जह० विद्वाणिया । अजह. विट्ठा तिट्ठा० चउट्ठा० । सम्म०-सम्मामि० ओघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । गरि पज० इथिवे. पत्थि । जोणिणी० पुरिसवे०-णवंस० णस्थि । सम्म० जह अजह० विट्ठाणि। पंचितिरिक्खअपज-मणसअपज्ज० मिच्छ०-सोलसक०सत्तणोक० णारयभंगो।
९९. देवेसु तिरिक्खोघं । णवरि णवंस० णत्थि । एवं सोहम्मीसाण० । एवं भवण-वाण-०-जोदिसि । णवरि सम्म० जह० अजह० विट्ठाणि | सणक्कुमारादि जाव सहस्सारा त्ति देवोघं । णवरि इत्थिवेदो पत्थि । आणदादि सव्वट्ठा ति अपप्पणो पयडीणं जह० अजह० विद्याणि । णवरि सम्भ० जह० एगट्ठा० । अजह? एगट्ठा० विट्ठाणिया वा । एवं जाव० । .5 १००. एत्थ सुगमत्तादो सुरेणापरूविदाणं सव्वुदीरणादीणमुच्चारणादो अणुगमं भी है और चतुःस्थानीय भी है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार पहली पथिवीमें जानना चाहिए । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय ही है।
६९८. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषायं और नौ नोकषायोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है। अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय भी है, त्रिस्थानीय भी है और चतुःस्थानीय भी है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्च पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदं नहीं है तथा योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। योनियोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग नारकियोंके समान है।
९९. देवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुसक घेद नहीं है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए । इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय है । अजघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय भी है और द्विस्थानीय भी है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
. १००. यहाँ सुगम होनेसे सूत्रद्वारा नहीं कहे गये सर्व उदीरणा आदिका उच्चारणाके अनुसार अनुगम करते हैं । यथा-सर्व अनुभाग उदीरणा और नोसर्व अनुभाग उदीरणानु