Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ वेदोग ७
"
पुरिसवेद ० ० उक्क० अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । सम्म० - सम्मामि० उक्क० अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्डपोग्गलपरियङ्कं ।
७८
$ १९८. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - अनंताणु०४ - इस्स-रदि० उक्क० अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीस सागरो० देसूणाणि । सम्म० सम्मामि० उक्क० अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । बारसक० - अरदि-सोग-भयदुर्गुछाणं मिच्छत्तभंगो | णवरि अणुक्क० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । एवं
पुरुषवेदके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनके बराबर है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकुका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ।
विशेषार्थ —संयतासंयत और संयतका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है, इसीलिए यहाँ मध्यकी आठ कषायोंके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है, क्योंकि संयतासंयत अप्रत्याख्यान कषायचतुष्कके और संयत जीब प्रत्याख्यानकषायचतुष्कके अनुदीरक होते हैं। चार संज्वलन और भय - जुगुप्साकी उपशमश्र णिमें अपनी-अपनी उदीरणाव्युच्छित्तिके बाद लौट कर वहाँ आनेतक उदीरणा नहीं होती । यतः इस कालका योग अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभाग के उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। सातवें नरकमें तथा वहाँ जानेके पूर्व और आनेके बाद अन्तर्मुहूर्त तक हास्य रतिकी उदीरणा न हो यह सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागरोपम कहा है । सहस्त्रार कल्पमें छह महीना तक अरति शोककी उदीरणा न हो यह सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह माहप्रमाण कहा है। सौ सागरपृथक्त्व काल तक कोई जीव
T
'वेदी न हो ऐसा कालप्ररूपणासे ज्ञात होता है, इसलिए नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण कहा है। जीवके नपुंसकवेदी रहते हुए स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदीरणा नहीं होती, अतः उस कालको जानकर स्त्रीवेद और पुरुष - वेद के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर काल अनन्त कालप्रमाण कहा है, जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है। एक बार सम्यग्दृष्टि होनेके बाद यह जीव उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल तक मिथ्यादृष्टि बना रह सकता है, इसलिए सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष स्पष्टीकरण चूर्णिसूत्रोंसे ही हो जाता है। आगे गतिमार्गणा के उत्तर भेदोंमें भी जहाँ जो अन्तरकाल कहा है उसे इसी न्याय से घटित कर लेना चाहिए । कहीं कोई विशेष वक्तव्य होगा तो उसका स्पष्टीकरण अवश्य करेंगे ।
$ १९८. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, हास्य और रतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक्का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। बारह कषाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भंग मिथ्यात्वके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल