Book Title: Kasaypahudam Part 11
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गा० ६२ ]
मूलपयडिअणुभागउदीरणाए अप्पा बहुअं
१० जह०
$ ६१. आदेसेण णेरइय० मोह० जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० सम्माइट्ठिस्स तप्पाओग्गअनंतभागेण वड्डिऊण वड्डी, हाइदूण हाणी, एगदरत्थावट्ठाणं । एवं सव्वणेरइय ० - सव्वदेवा० । तिरिक्खेसु मोह ० जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० संजदासंजदस्स तप्पाओग्गअनंतभागेण वड्डिण वड्डी हाइदूण हाणी एगदरत्थावट्ठाणं । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । पंचि०तिरि० अपज्ज० - मणुस अपज्ज० मोह ० कस ? अण्ण० तप्पा ओग्गअनंतभागेण वडिदूण वड्डी हाइदूण हाणी एगदरत्थमवट्ठाणं । एवं जाब० । $ ६२. अप्पा बहुआणु० दुविहं- जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०ओघेण ओदेसेण य । ओघेण सव्वत्थोवा मोह ० उक्क० वड्डी । उक्क० अवट्ठाणं विसे० । उक्क हाणी विसे० । आदेसेण णेरइय० सव्वत्थोवा उक्क० वड्ढी । हाणी अवट्ठा० दो विसरिसा विसेसा० । एवं सव्वणेरइय० - सव्वतिरिक्ख ० - सव्वमणुस - सव्वदेवाति । एवं जाव० ।
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९६३. जह० पयदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह ० सव्वत्थोवा जह० हाणी । जह० वड्डी अणंतगुणा । जह० अवट्ठा० अनंतगुणं । एवं प्रवृत्तसंयत जीव अनन्त॒वें भाग वृद्धि करके अवस्थित है वह जघन्य अवस्थानका स्वामी है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए ।
$ ६१. आदेशसे नारकियों में मोहनीयकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्य - तर सम्यग्दृष्टि नारकी तत्प्रायोग्य अनन्तवें भागरूपसे वृद्धि करता है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है, उतनी ही हानि करता है वह जघन्य हानिका स्वामी है तथा इनमेंसे किसी एक जगह अवस्थान होने पर जघन्य अवस्थानका स्वामी है। इसी प्रकार सब नारकी और सब देवोंमें जानना चाहिए। तिर्यञ्चोंमें मोहनीयकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर संयतासंयत जीव अनन्तवें भागरूपसे वृद्धि करता है वह जवन्य वृद्धिका स्वामी है, उतनी ही हानि करता है वह जघन्य हानिका स्वामी है तथा इनमेंसे किसी एक जगह अवस्थान होने पर जघन्य अवस्थानका स्वामी है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयकी जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर तत्प्रायोग्य अनन्तवें भागरूपसे वृद्धि करता है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है, उतनी ही हानि करता है वह जघन्य हानिका स्वामी है तथा इनमेंमें किसी एक जगह अवस्थान होने पर जघन्य अवस्थानका स्वामी है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
§ ६२. अल्पबहुत्वानुगम दो प्रकारका है— ज — जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है । उससे उत्कृष्ट अवस्थान विशेष अधिक है। उससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। आदेशसे नारकियोंमें उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि और अवस्थान दोनों ही समान होकर विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
$ ६३. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | Ha मोहनीयकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। उससे जघन्य वृद्धि अनन्तगुणी है। उससे जघन्य