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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
मानव व्यवहारों का वह प्रतिफलन है जिसमें पारस्परिक आदान-प्रदान लोक कल्याणार्थं ही होता है। शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार समाज मनुष्यों के उस विशाल झुण्ड (Crowd ) का नाम नहीं जो मानव व्यवहारों के बहुत निकट होने पर भी प्रदान-प्रदान की दृष्टि से उदासीन रहता है । यही कारण है कि लोककल्याण की भावना झुण्ड (Crowd ) में नहीं रहती इसलिए समाजशास्त्र उसे 'समाज' (Society) की संज्ञा से बहिष्कृत कर देता है । " समाजगत इन परिभाषात्रों के परिप्रेक्ष्य में यहाँ साहित्य का अभिप्राय केवल काव्य ग्रन्थों से ही नहीं अपितु धर्म-दर्शन से सम्बद्ध सभी संस्कृत आदि ग्रन्थों से है । प्राधुनिक युग में 'साहित्य' का प्रयोग सामान्य तथा व्यापक अर्थ में भी किया जाने लगा है तथा किसी भी प्रकार की लिखित सामग्री को 'साहित्य' (Literature ) कह दिया जाता है । साहित्य को चाहे जिस किसी रूप में भी स्वीकार किया जाए उसका सामाजिक-प्रावश्यकताओं की संपूर्ति करना ही परम उद्देश्य है । कभी-कभी धर्म-दर्शन से सम्बद्ध साहित्य रचनाएं रसालङ्कारों आदि से विमुख होते हुए भी सौन्दर्यात्मक एवं उदात्त-भावनाओं से अछूती नहीं रह पाती हैं और प्रधानरूप से आध्यात्मिक एवं दार्शनिक रहस्यों का प्रतिपादन होने पर भी इन पर युगीन परिस्थितियों की प्रतिक्रियाओं का प्रतिफलन स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । अभिप्राय यह है कि प्रत्येक साहित्य समाज की किसी न किसी अपेक्षा से निर्मित होता है, यह गौण है कि उसमें प्रालङ्कारिता का पुट है अथवा दार्शनिकता का ।
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लोककल्याण की भावना भी साहित्य एवं समाज की विशेषता है । मनुष्य परिवार वर्ग, राष्ट्र आदि विविध संगठनों के माध्यम से मानव कल्याण के लिए जितने भी कार्य करता है उन्हें सामाजिक कार्य माना जायेगा ये लोकहित की भावना से प्रेरित होने वाले वर्ग 'समाज' कहलायेंगे । वास्तव में समाजशास्त्र 'समाज' के अन्तर्गत केवल मात्र 'सामाजिक व्यवहारों की ही अनुमति देता है । अन्य
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?. Macdougall, W., The Group Mind, Cambridge, 1920, p. 30 २. मानविकी, पारिभाषिक कोष ( साहित्य खण्ड), पृ० १५८
३. वही, पृ० १५८
४. तु० – काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये । सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥
— काव्यप्रकाश, १.२
५.
६.
Gavin. R.W., Our Changing Social Order, p. 9
"A well-socialized person is one who havitually acts in ways
that are valuable to society".
—Gavin, Our Changing Social Order, p. 107