________________
१४
जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
के समकक्ष प्राचीन भारतीय 'धर्म' शब्द का विशेष महत्त्व था । ' इस सम्बन्ध में धर्मशास्त्र के मनीषी डा० पी. वी. काणे कहते हैं कि 'प्राचीन काल में धर्म सम्बन्धी धारणा बड़ी व्यापक थी और वह मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन को स्पर्श करती थी । धर्मशास्त्रों के मतानुसार धर्म किसी सम्प्रदाय का द्योतक नहीं है, प्रत्युत यह जीवन का एक ढंग या श्राचरण संहिता है जो समाज के किसी प्रङ्ग एवं व्यक्ति के रूप में मनुष्य के कर्मों एवं कृत्यों को व्यवस्थापित करता है तथा उसमें क्रमशः विकास लाता हुआ उसे मानवीय अस्तित्व के लक्ष्य तक पहुंचने योग्य बनाता है । वर्णधर्म, श्राश्रम धर्म, वर्णाश्रम धर्म, गुरण धर्म, नैमित्तिक धर्म, साधारण धर्म श्रादि धर्म के छः प्रकारों में भी विविध मानव व्यवहारों को एक सामाजिक ढाँचे में विभाजित कर 'धर्म का वैशिष्ट्य उभारना ही मुख्य प्रयोजन था । 'धर्म' निःसन्देह मानव व्यवहारों का द्योतक है तथा पशुओं एवं मनुष्यों में विभाजन रेखा भी धर्म के द्वारा ही खींची जा सकती है । सूत्रकारों तथा स्मृतिकारों ने 'धर्म' के महत्त्व को उभारते हुए इसके अनुसरण करने के लिए विशेष बल दिया है । जैन परम्परा के अनुसार भी 'धर्म' का स्वरूप सर्वथा समाज के सन्दर्भ में ही हुआ है । सागार-धर्म अनागार-धर्म, श्रावक-धर्म, मुनि-धर्म, आदि विभाजन न केवल सामाजिक विभाजन ही हैं अपितु विविध प्रकार के मानव-व्यवहारों के पारस्परिक सम्बन्धों में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । जैन संस्कृति के 'सागार धर्म' का तो सीधे समाज से ही सम्बन्ध है।
१. जयशङ्कर मिश्र, प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पटना, १६७४, पृ० ६
२. काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० १०१
३. तु० – प्रत्र च धर्मशब्दः षड्विधस्मार्तं धर्मविषयः तद्यथा - वर्णधर्म श्राश्रमधर्मो वर्णाश्रमधर्मो गुणधर्मो निमित्तधर्मः साधारणधर्मश्चेति ।
- मिताक्षरा टीका याज्ञवल्क्यस्मृति, चौखम्बा संस्कृत सीरिज, बनारस, १३०, १.१, पृ० ४
तु० -
आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
- ( मनु के नाम से उद्धृत), मयूरभट्ट विरचित सूर्यशतक, रमाकान्त त्रिपाठी, वाराणसी, १९६४, भूमिका, पृ० २८
५. विशेष द्रष्टव्य, काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, पृ० १-५ तथा पृ० १०१-१०८
४.