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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
अपने संस्कृतियों के धार्मिक ग्रन्थ हैं जिनमें वेद, उपनिषद्, धर्मसूत्र, रामायण, महाभारत, धर्मशास्त्र, पुराण आदि ग्रन्थों का भारतीय संस्कृति एवं समाज के निर्माण एवं विकास में बहुत योगदान रहा है । जैन एवं बौद्ध संस्कृति के मूलाधार धार्मिक ग्रन्थों में क्रमशः आगम एवं जातक ग्रन्थों को स्वसंस्कृतियों के सामाजिक स्वरूप के निर्धारण का श्रेय प्राप्त होता है । भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि- यद्यपि भारत में विविध संस्कृतियाँ रही थीं किन्तु ब्राह्मण अथवा हिन्दू संस्कृति इनमें सर्वोपरि थी अतः सम्पूर्ण भारतीय समाज की सामाजिक संस्थाओं पर हिन्दू संस्कृति के धार्मिक ग्रन्थों का विशेष प्रभाव पड़ा। हिन्दू संस्कृति के धर्मशास्त्रों की रचना का तत्कालीन देश-काल-सीमा के अन्तर्गत नियमानुसार समाज को सुव्यवस्थित करना ही प्रमुख उद्देश्य था ।' तदर्थ मनु याज्ञवल्क्यादि मनीषियों ने वर्ण-व्यवस्था, वर्ण-धर्म, विवाह, परिवार, राज-धर्म, शिक्षा तथा स्त्रियों आदि के कर्तव्यों एवं अधिकारों के सम्बन्ध में अपनी अपनी मान्यताएं दी हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण भारत का प्राचीन सामाजिक जीवन 'वर्णव्यवस्था की परिधि में पूरी तरह से जकड़ा हुअा था। यह अलग बात है कि श्रमण परम्परा के चिन्तकों ने इस व्यवस्था का विरोध भी किया, किन्तु उनका वह विरोध व्यावहारिक दृष्टि से अधिक सफल न हो पाया। अन्त में जाकर एक समय ऐसा भी आया जब जैन संस्कृति के सामाजिक जीवन में 'वर्णव्यवस्था' को भी स्वीकार करना पड़ा, उदाहरणार्थ ब्राह्मण संस्कृति के घोर विरोधी जटासिंह नन्दि ने सिद्धान्त रूप से वर्ण-व्यवस्था का विरोध तो किया, किन्तु राज्य में वर्णाश्रम व्यवस्था का पालन किया जाना उनके अनुसार भी एक आदर्श राजा का प्रशंसनीय गुण ही था ।४ वर्णाश्रम-व्यवस्था का मनोवैज्ञानिक आधार 'धर्म' बन चुका था इसलिए प्राचीन भारतीय समाज की व्यवस्था सर्वथा धर्मानुप्राणित थी तथा सामाजिक व्यवस्थाओं के प्रतिपादक 'धर्मसूत्र' तथा धर्मशास्त्रादि ग्रन्थ धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत समाविष्ट किए जाते हैं। इसी प्रकार श्रमण परम्परा के आगम, जातकादि ग्रन्थ धर्मानुप्राणित होने पर भी संस्कृति की सामाजिक आवश्यकताओं के पूरक हैं । इस प्रकार प्राचीन
१. तु०-एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ।।
-मनुस्मृति, २.२० २. तु०-देशधर्माजातिधर्मान्कुलधर्मांश्च शाश्वतान् । पाषण्डगणधर्मांश्च शास्त्रेऽस्मिन्नुक्तवान् मनुः ॥
-मनुस्मृति, १.११८ ३. वराङ्गचरित, २५. २-११ ४. वही, १.५१