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साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य
होता किन्तु समाज में विघटनकारी एवं हानिकारक तत्त्व और अधिक बढ़ जाते हैं। 'सोरोकिन' ने इस सम्बन्ध में 'युद्ध' (War) तथा 'क्रान्ति' (Revolution) के पारस्परिक सम्बन्धों पर भी विचार किया है जो प्राचीनकाल से चली आ रही मानवीय सभ्यता के विशेष प्रङ्ग रहे हैं । इनके मतानुसार 'युद्ध' एवं 'क्रान्ति' अन्योन्याश्रित हैं तथा कभी 'युद्ध' 'क्रान्ति' को जन्म देता है तो कभी 'क्रान्ति' से 'युद्ध' लड़े जाते हैं । किन्तु यह स्थिति समाज के सर्वाङ्गीण विकास के लिए घातक है । भारतीय इतिहास में राजाओं महाराजों द्वारा किये गए युद्धों का ही मह परिणाम मानना चाहिए कि एक समय ऐसा आया जब भारतवर्ष पूर्णतः दासता की शृङ्खला में जकड़ गया तथा इसकी प्राचीन सांस्कृतिक एवं सामाजिक चेतना भी शनैः शनैः क्षीण होती गई । युद्धों के बाद समाज के पुनर्निर्माण के कार्यों पर विशेष बल देना पड़ता है । इससे मानव समाज के श्रावश्यक सम्बन्धों पर विघनात्मक शक्तियों द्वारा शिथिलता भी थोप दी जाती है ।
प्राचीन भारतीय सामाजिक विचारक—
जैसा कि कहा जा चुका है कि समाज से सम्बन्धित व्यवस्थित विज्ञान सर्वथा एक नवीन विज्ञान है तथा पाश्चात्य विचारकों ने ही इस विज्ञान का श्राविष्कार किया है । अतएव प्राचीन भारतीय विद्यानों में 'समाजशास्त्र' जैसे किसी शास्त्र की कल्पना नहीं की जा सकती । भारतीय चिन्तकों ने काव्य, धर्म, दर्शन के समान 'समाज' की कोई शास्त्रीय परिभाषा न दी हो, किन्तु समाज के विविध संस्थानों, संगठनों तथा समूहों को लक्ष्य कर इन्होंने समाज का सदैव पथ प्रदर्शन किया है । गम्भीरता से विचार किया जाए तो भारतीय चिन्तक 'समाज कैसा होना चाहिए' इस प्रयोजन को अधिक महत्त्व देते थे जबकि 'समाजशास्त्र' 'समाज क्या है' इस समस्या का ही समाधान कर पाता है ।" प्राचीन भारतीय समाज के प्रमुख स्रोत अपने
१. तु ० .
(i) "The Hindu Social thinkers have given us theories of Social institutions and organization, what they should be and ought to be. That is to say, they have thought out and and portrayed social and individual ideals."
-Prabhu, P. H., Hindu Social Organization, Bombay, 1961, p. 5
(ii) "Sociology as such is an empirical science and does not concern itself with social or moral values, which are the primary concern of Social philosophy as the speculative study of society".
-Das, An Introduction to the Study of Society, p. 12.