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साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य
भारतीय सामाजिक विचारकों ने धार्मिक परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य में ही सामाजिक चिन्तन धारा को पल्लवित किया। प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्र तथा आधुनिक समाजशास्त्र
__'धर्म' की परिभाषानों से यह सिद्ध होता है कि धर्म इहलोक तथा परलोक दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण रहा था ।' 'धर्म' की पारलौकिक सन्दर्भ में व्याख्या करना सम्भवत; धर्म का दार्शनिक अथवा अध्यात्मिक पक्ष रहा हो । वास्तव में प्राचीन भारतीय समाज व्यवस्था में 'धर्म' की लौकिक एवं व्यावहारिक उपादेयता ही सर्वोपरि रही थी ।२ दूसरे शब्दों में धर्म एक ऐसा तत्त्व विशेष रहा है जिसकी तुलना 'समाज' (Society) जैसे समाजशास्त्रीय तत्त्व से की जा सकती है। इस तथ्य को धर्मसूत्रों तथा धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित विषयावली और भी स्पष्ट कर देती है-उदाहरणार्थ गौतम, बौधायन, आपस्तम्ब, वसिष्ठ आदि महत्त्वपूर्ण धर्मसूत्रों तथा मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, बृहस्पतिस्मति प्रादि महत्त्वपूर्ण धर्मशास्त्र के ग्रन्थों की सामान्य विषयवस्तु इस प्रकार होती है-(१) वर्णाश्रम व्यवस्थाअधिकार कर्तव्य एवं दायित्व, (२) गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक के संस्कारवर्णन तथा उनकी विधियाँ, (३) ब्रह्मचारी के कर्तव्य, आचरण तथा अध्ययनपद्धति' (४) विवाह एवं उसकी विविध पद्धतियाँ (५) गृहस्थ के कर्त्तव्य तथा अन्य यज्ञ, दान एवं अतिथि सत्कार (६) स्त्री धर्म एवं स्त्री विषयक विविध मान्यताएं (७) क्षत्रियों तथा राजाओं के प्रादर्श कर्त्तव्य (८) व्यवहार-विधान, संविधान, अपराध, दण्ड, साझेदारी, बंटवारा, दायभाग, गोद लेना आदि (8) चार प्रमुख · वर्ण, वर्णसङ्कर तथा उनके व्यवसाय, प्रापधर्म, आदि (१०) व्रताचरण, मन्दिरधर्मशाला-निर्माण आदि जनकल्याण सम्बन्धी कार्य ।
उपर्युक्त विषय वस्तुओं पर यदि समीक्षात्मक दृष्टि डाली जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि धर्मसूत्र अथवा धर्मशास्त्र 'आधुनिक 'समाजशास्त्र' के अनुसार समाज के आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा पारिवारिक पक्षों पर प्रकाश डालते रहे थे तथा तत्कालीन समाज के प्रत्येक पक्ष के निश्चित सामाजिक मूल्य की ओर भी इंगित करते हैं । इस प्रकार आधुनिक 'समाज' शब्द
१. श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन्हि मानवः । इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् ।।
-मनु, २.६ २. Bhargava, D.N., Jain Ethics, Delhi, 1968 p. 1 ३. पी. वी. काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग १, अनु०-अर्जुन चौबे
काश्यप, लखनऊ, पृ० १.१ .