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साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य साहित्य एवं समाज में प्रवृत्ति-साम्य
पूर्वोक्त समाज सम्बन्धी पारिभाषिक व्याख्यानों से स्पष्ट हो जाता है कि 'समाजशास्त्र' का मुख्य प्रयोजन मनुष्य को सामाजिक व्यवहार से परिचित कराना है तो दूसरी ओर साहित्य भी अप्रत्यक्ष रूप से इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है। दोनों में अनेक दृष्टियों से प्रवृत्ति-साम्य है । 'साहित्य' शब्द के मूल में 'सहित' अथवा हित की भावना रहती है। ‘सहित' का अभिप्राय सामूहिकता तथा संगठन शक्ति से होता है तो 'हित' से जन-कल्याण की भावना ग्रहण की जाती है। ये दोनों विशेषताएं साहित्य की वे उल्लेखनीय विशेषताएं हैं जो मानव-व्यवहारों को पशु व्यवहारों से पृथक् करती हैं। इसी प्रकार समाजशास्त्र के अनुसार 'समाज' की परिभाषा केवल मात्र मानव व्यवहारों तक सीमित मानी जाती है और पशु व्यवहारों को इसके अन्तर्गत नहीं लिया जाता है। भारतीय विचारकों ने भी यह स्वीकार किया है कि साहित्य एवं सङ्गीत मनुष्य जीवन की वे विशेषताएं हैं जिनसे पशुओं तथा मनुष्यों में भेद किया जा सकता है। वैसे भी संस्कृत 'समाज' शब्द का व्यवहार केवल 'मनुष्य-समूह' तक ही सीमित है तथा पशु-समूह के लिए 'समाज' का प्रयोग न होकर 'समज' का प्रयोग होता है ।४ स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय विचारकों ने यत्र-तत्र 'समाज' की अत्यन्त सूक्ष्म विशेषताओं की ओर भी इङ्गित किया है जो प्राधुनिक युग में समाजशास्त्रीय परिभाषानों के सन्दर्भ में भी तर्कसङ्गत बैठती हैं। समाजशास्त्रीय परिभाषा के अनुसार 'समाज' मनुष्यों का वह समूह है जिसमें मनुष्यों के पारस्परिक व्यवहारों का आदान-प्रदान जन कल्याण की भावना से होता है । समाज की इस परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि समाज पशु-भिन्न
१. मानविकी पारिभाषिक कोष (साहित्य खण्ड), सम्पा० डा० नगेन्द्र, दिल्ली,
१६६५, पृ० १५८ २. Das, A.C., An Introduction to the Society, p. 3 ३. तु०-साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तदुभागधेयं परमं पशूनाम् ।। -भतृहरिकृत नीतिशतक, सम्पादक-एस० एन० शास्त्रीयर, मद्रास,
१६५७, पृ० ७५ ४. Apte, V. S., The Student's Sanskrit English Dictionary, Delhi,
1970, p. 507. “A Society is a group of Individuals united in the persuits of a common interest". --Gavin, R.W., Our Changing Social Order, p. 9