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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । हो चुका है, अत एव जिसने सम्यक्त्वकी विराधना (नाश) करदी है और मिथ्यत्वको प्राप्त नहीं किया है उसको सासन या सासादन गुणस्थानवर्ती कहते हैं । भावार्थ-जिसप्रकार पर्वतसे गिरनेपर और भूमिपर पहुंचने के पहले मध्यका जो काल है वह न पर्वतपर ठहरनेकाही है और न भूमिपर ही ठहरनेका है; किन्तु अनुभय काल है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी कषायमेंसे किसी एकके उदय होनेसे सम्यक्त्वपरिणामोंके छूटनेपर, और मिथ्यात्व प्रकृतिके उदय न होनेसे मिथ्यात्व परिणामोंके न होनेपर मध्यके अनुभयकालमें जो परिणाम होते हैं उनको सासन या सासादन गुणस्थान कहते हैं। यहांपर जो सम्यक्त्वको रत्नपर्वतकी उपमा दी है उसका अभिप्राय यह है कि जिसप्रकार रत्नपर्वत अनेक रत्नोंका उत्पन्न करनेवाला और उन्नतस्थान पर पहुंचानेवाला है उसही प्रकार सम्यक्त्व भी सम्यग्ज्ञानादि अनेक गुणरत्नोंको उत्पन्न करनेवाला है और सबसे उन्नत मोक्षस्थानपर पहुंचानेवाला है । क्रमप्राप्त तृतीयगुणस्थानका लक्षण करते हैं ।
सम्मामिच्छुदयेण य जत्तरसबघादिकजेण । णय सम्म मिच्छं पि य सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥ २१ ॥
सम्यग्मिथ्यात्वोदयेन च जात्यन्तरसर्वघातिकार्येण ।
नच सम्यक्त्वं मिथ्यात्वमपि च सम्मिश्रो भवति परिणामः ॥ २१ ॥ अर्थ-जिसका प्रतिपक्षी आत्माके गुणको सर्वथा घातनेका कार्य दूसरी सर्वघाति प्रकृतियोंसे विलक्षण जातिका है उस जात्यन्तर सर्वघाति सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे केवल सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्वरूप परिणाम न होकर जो मिश्ररूप परिणाम होता है उसको तीसरा मिश्र गुणस्थान कहते हैं । (शङ्का ) यह तीसरा गुणस्थान वन नहीं सकता; क्योंकि मिश्ररूप परिणाम ही नहीं हो सकते । यदि विरुद्ध दो प्रकारके परिणाम एकही आत्मा और एकही कालमें माने जाय तो शीतउष्णकी तरह परस्पर सहानवस्थान लक्षण विरोध दोष आवेगा । यदि क्रमसे दोनों परिणामों की उत्पत्ति मानीजाय तो मिश्ररूप तीसरा गुणस्थान नहीं बनता । ( समाधान ) यह शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि मित्रामित्रन्यायसे एककाल और एकही आत्मामें मिश्ररूप परिणाम हो सकते हैं। भावार्थ-जिसप्रकार देवदत्तनामक किसी मनुष्यमें यज्ञदत्तकी अपेक्षा मित्रपना और चैत्रकी अपेक्षा अमित्रपना ये दोनों धर्म एकही कालमें रहते हैं और उनमे कोई विरोध नहीं है । उस ही प्रकार सर्वज्ञ निरूपित पदार्थके खरूपके श्रद्धानकी अपेक्षा समीचीनता और सर्वज्ञाभासकथित अतत्वश्रद्धानकी अपेक्षा मिथ्यापना ये दोनों ही धर्म एक काल और एक आत्मामें घटित हो सकते हैं इसमें कोई भी विरोधादि दोष नहीं हैं। उक्त अर्थको ही दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हैं ।
दहिगुडमिव वामिस्सं पुहभावं व कारिदुं सकं ।
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