Book Title: Gommatsara Jivakand
Author(s): Khubchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 185
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गोम्मटसारः । चिंतियमचिंतियं वा अद्धं चिंतियमणेयभेयगयं । ओहिं वा विउमदी लहिऊण विजाणए पच्छा ॥ ४४८ ॥ चिन्तितमचिन्तितं वा अर्द्ध चिन्तितमनेकभेद्गतम् । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अवधिर्वा विपुलमतिः लब्ध्वा विजानाति पश्चात् ॥ ४४८ ॥ अर्थ — चिन्तित अचिन्तित अर्धचिन्तित इस तरह अनेक भेदोंको प्राप्त दूसरे के मनोगत पदार्थको अवधिकी तरह विपुलमति प्रत्यक्षरूपसे जानता है । दवं खेत्तं कालं भावं पडि जीवलक्खियं रूविं । उजुविलमदी जाणदि अवरवरं मज्झिमं च तहा ॥ ४४९ ॥ द्रव्यं क्षेत्रं कालं भावं प्रति जीवलक्षितं रूपि । ऋजुमतिका जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यप्रमाण बताते हैं । ऋजुविपुलमती जानीतः अवरवरं मध्यमं च तथा ।। ४४९ ॥ अर्थ - द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षासे रूपि ( पुद्गल ) द्रव्यको तथा उसके सम्बधसे जीवद्रव्यको भी ऋजुमति और विपुलमति जघन्य मध्यम उत्कृष्ट तीन तीन प्रकार से जानते हैं । १६५ अवरं दवमुदालिय सरीरणिजिण्णसमयबद्धं तु । चक्खिदियणिज्जण्णं उक्कस्सं उजुमदिस्स हवे ॥ ४५० ॥ अवरं द्रव्यमौरालिकशरीरनिर्जीर्णसमयप्रबद्धं तु । चक्षुरिन्द्रियनिर्जीर्णमुत्कृष्टमृजुमतेर्भवेत् ॥ ४५० ।। है अर्थ - औदारिक शरीर के निर्जीर्ण समयप्रबद्धप्रमाण ऋजुमतिके जघन्य द्रव्यका प्रमाण । तथा चक्षुरिन्द्रियकी निर्जरा - द्रव्य - प्रमाण उत्कृष्ट द्रव्यका प्रमाण है । विपुलमतिके द्रव्यका प्रमाण बताते हैं । मणदववग्गणाणमणंतिमभागेण उजुगउक्कस्सं । खंडिदमेत्तं होदि हु विउलमदिस्सावरं दत्रं ॥ ४५१ ॥ मनोद्रव्यवर्गणानामनन्तिमभागेन ऋजुगोत्कृष्टम् । खण्डितमात्रं भवति हि विपुलमतेवरं द्रव्यम् ॥ ४५१ ॥ अर्थ – मनोद्रव्यवर्गणाके जितने विकल्प हैं, उसमें अनन्तका भाग देनेसे लब्ध एक भागप्रमाण ध्रुवहारका, ऋजुमतिके विषयभूत उत्कृष्ट द्रव्यप्रमाणमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतने द्रव्यस्कन्धको विपुलमति जघन्यकी अपेक्षा से जानता है । अहं कम्माणं समयपवद्धं विविस्ससोबचयम् । धुवहारेणगिवारं भजिदे विदियं हवे दत्रं ॥ ४५२ ॥ For Private And Personal

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