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गोम्मटसारः। थावरकायप्पहुदी संढो सेसा असण्णिआदी य। अणियट्टिस्स य पढमो भागोत्ति जिणेहिं णिहिटं ॥ ६८४ ॥
स्थावरकायप्रभृतिः षण्ढः शेषा असंज्ञ्यादयश्च । ___अनिवृत्तेश्च प्रथमो भाग इति जिनैर्निर्दिष्टम् ॥ ६८४ ॥ अर्थ-वेदमार्गणाके तीन भेद हैं, स्त्री, पुरुष, नपुंसक । इसमें नपुंसक वेद स्थावरकाय मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरणके पहले सवेद भागपर्यन्त रहता है । अत एव इसमें गुणस्थान नव और जीवसमास चौदह होते हैं । शेष स्त्री और पुरुषवेद असंज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरणके सवेद भाग तक होते हैं। यहां पर गुणस्थान तो पहलेकी तरह नव ही है; किन्तु जीवसमास असंज्ञी पंचेन्द्रियके पर्याप्त अपर्याप्त और संज्ञीके पर्याप्त अपर्याप्त इसतरह चार ही होते हैं।
थावरकायप्पहुदी अणियट्टीबितिचउत्थभागोत्ति । कोहतियं लोहो पुण सुहमसरागोत्ति विण्णेयो ॥ ६८५ ॥ स्थावरकायप्रभृति अनिवृत्तिद्वित्रिचतुर्थभाग इति ।।
क्रोधत्रिकं लोभः पुनः सूक्ष्मसराग इति विज्ञेयः ॥ ६८५ ॥ अर्थ--कषायमार्गणाकी अपेक्षा क्रोध मान माया ये तीन कषाय स्थावरकायमिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्ति करणके दूसरे तीसरे चौथे भाग तक क्रमसे रहते हैं । और लोभकषाय दशमे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक रहता है। अतएव आदिके तीन कषायोमें गुणस्थान नव और लोभकषायमें दश होते हैं; किन्तु जीवसमास दोनों जगह चौदह २ ही होते हैं ।
थावरकायप्पहुदी मदिसुदअण्णाणयं विभंगो दु । सण्णीपुण्णप्पहुदी सासणसम्मोत्ति णायचो ॥ ६८६ ॥ स्थावरकायप्रभृति मतिश्रुताज्ञानकं विभङ्गस्तु ।
संज्ञिपूर्णप्रभृति सासनसम्यगिति ज्ञातव्यः ॥ ६८६ ॥ अर्थ-कुमति और कुश्रुत ज्ञान स्थावरकाय-मिथ्यादृष्टि से लेकर सासादन गुणस्थानतक होते हैं। विभङ्गज्ञान संज्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टिसे लेकर सासदनपर्यन्त होता है । कुमति कुश्रुत ज्ञानमें गुणस्थान दो और जीवसमास चौदह होते हैं। विभङ्गमें गुणस्थान दो और जीवसमास एक संज्ञीपर्याप्त ही होता है।
सण्णाणतिगं अविरदसम्मादी छट्ठगादि मणपज्जो। खीणकसायं जाव दु केवलणाणं जिणे सिद्धे ॥ ६८७ ॥
सदूज्ञानत्रिकमविरतसम्यगादि षष्टकादिर्मनःपर्ययः । क्षीणकषायं यावत्तु केवलज्ञानं जिने सिद्धे ॥ ६८७ ॥
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