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गोम्मटसारः ।
२७३
संज्ञा रखदी इसको जीवका नामनिक्षेप कहते हैं। किसी काष्ठ चित्र या मूर्ति आदिमें किसी जीवकी 'यह वही है' ऐसे संकल्परूपको स्थापना निक्षेप कहते हैं । स्थापन में स्थाप्यमान पदार्थकी ही तरह उसका आदर अनुग्रह होता है । भविष्यत् या भूतको वर्तमानवत् कहना जैसे कोई देव मरकर मनुष्य होनेवाला है उसको देवपर्याय में मनुष्य कहना, अथवा मनुष्य होनेपर देव कहना यह द्रव्यनिक्षेपकाविषय है । वर्तमान मनुष्यको मनुष्य कहना यह भावनिक्षेपका विषय है । प्राणभूत असाधारण लक्षणको एकार्थ कहते हैं । जैसे जीवका लक्षण दश प्राणोंमेंसे यथासम्भव प्राणोंका धारण करना या चेतना ( जानना और देखना ) है । यही जीवका एकार्थ है । वस्तुके अंशग्रहणको नय कहते हैं । जैसे जीवशब्द के द्वारा आत्माकी एक जीवत्वशक्तिका ग्रहण करना । एक शक्तिके द्वारा समस्त वस्तुके ग्रहणको प्रमाण कहते हैं । जैसे जीवशब्दके द्वारा सम्पूर्ण आत्माका ग्रहण करना । जिस धातु और प्रत्ययके द्वारा जिस अर्थ में जो शब्द निष्पन्न हुआ है उसके उसही प्रकार से दिखानेको निरुक्ति कहते हैं । जैसे—जीवति जीविष्यति अजीवीत् वा स जीवः = जो जीता है या जीवेगा या जिया हो उसको जीव कहते हैं । जीवादिक पदार्थों के जानने के उपायविशेषको अनुयोग कहते हैं । उसके छह भेद हैं । निर्देश ( नाममात्र या खरूप अथवा लक्षणका कहना ) स्वामित्व, साधन ( उत्पत्तिके निमित्त ) अधिकरण, स्थिति ( कालकी मर्यादा ) भेद । इन उपायोंसे जो उक्त वीसप्ररूपणाओंको जानलेता है वही आत्माके समीचीन स्वरूपको समझसकता है ।
॥ इति आलापाधिकारः ॥
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अन्तमें आशीर्वादखरूप गाथाको आचार्य कहते हैं ।
अज्जज्जसेण गुणगणसमूह संधारिअजियसेणगुरू |
गो० ३५
भुवणगुरू जस्स गुरू सो राओ गोम्मटो जयतु ॥ ७३३ ॥ आर्यार्यसेनगुणगणसमूहसंधार्यजितसेनगुरुः ।
भुवनगुरुर्यस्य गुरुः स राजा गोम्मटो जयतु ॥ ७३३॥
अर्थ – श्री आर्यसेन आचार्यके अनेक गुणगणको धारण करनेवाले और तीन लोकके गुरु श्री अजितसेन आचार्य जिसके गुरु हैं वह श्री गोम्मट ( चामुण्डराय ) राजा जयवन्ता रहो ।
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॥ इति गोम्मटसारस्य जीवकाण्डं समाप्तम् ॥
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