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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
संज्ञामार्गणाकी अपेक्षा वर्णन करते हैं ।
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सणी सण्णिप्पहूदी खीणकसाओत्ति होदि नियमेण । थावर काय पहुदी असण्णित्ति हवे असण्णी हु ॥ ६९६ ॥ संज्ञी संज्ञिप्रभृतिः क्षीणकषाय इति भवति नियमेन ।
स्थावरकायप्रभृतिः असंज्ञीति भवेदसंज्ञी हि ॥ ६९६ ॥
अर्थ – संज्ञी जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषायपर्यन्त होते हैं । इनमें गुणस्थान बारह और जीवसमास संज्ञी पर्याप्त अपर्याप्त ये दो होते हैं । असंज्ञी जीव स्थावर कायसे लेकर असंज्ञीपंचेन्द्रियपर्यन्त होते हैं । इनमें गुणस्थान एक मिथ्यात्व ही होता है, और जीवसमास संज्ञीसम्बन्धी पर्याप्त अपर्याप्त इन दो भेदोंको छोड़कर शेष बारह होते हैं । थावर काय पहुदी सजोगिचरिमोति होदि आहारी । कम्मइय अणाहारी अजोगिसिद्धे विणायचो ॥ ६९७ ॥ स्थावरकायप्रभृतिः सयोगिचरम इति भवति आहारी ।
कार्मण अनाहारी अयोगिसिद्धेपि ज्ञातव्यः ॥ ६९७ ॥
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अर्थ — स्थावर काय मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवलीपर्यन्त आहारी होते हैं । और कार्मणकाययोगवाले तथा अयोगकेवली अनाहारक समझने चाहिये । भावार्थ - कार्मणकाययोग और अयोगकेवल गुणस्थानवाले जीवोंको छोड़कर शेष समस्त संसारी जीव आहारक होते हैं । आहारक जीवोंके आदिके तेरह गुणस्थान और चौदह जीवसमास होते हैं । अनाहारक जीवोंके गुणस्थान पांच ( मिथ्यादृष्टि सासादन असंयत सयोगी अयोगी ) और जीवसमास सात अपर्याप्त और एक अयोगीसम्बन्धी पर्याप्त इसप्रकार आठ होते हैं । किस २ गुणस्थान में कौन २ सा जीवसमास होता है यह घटित करते हैं ।
मिच्छे चोहस जीवा सासण अयदे पमत्तविरदे य । सणिदुगं सगुणे सण्णीपुण्णो दु खीणोति ॥ ६९८ ॥ मिध्यात्वे चतुर्दश जीवाः सासनायते प्रमत्तविरते च । संज्ञिद्विकं शेषगुणे संज्ञिपूर्णस्तु क्षीण इति ॥ ६९८ ॥
अर्थ —- मिथ्यात्वगुणस्थान में चौदह जीवसमास हैं । सासादन असंयत प्रमत्तविरत चकारसे सयोगकेवली इनमें संज्ञी पर्याप्त अपर्याप्त ये दो जीवसमास होते हैं । शेष गुणस्थानों में संज्ञीपर्याप्त एक ही जीवसमास होता है ।
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मार्गणास्थानोंमें जीवसमासों को संक्षेपसे दिखाते हैं 1
तिरियगदीए चोइस हवंति सेसेसु जाण दो दो दु । मग्गठाणस्सेवं णेयाणि समासठाणाणि ॥ ६९९ ॥
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