Book Title: Gommatsara Jivakand
Author(s): Khubchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 285
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। २६५ क्रमप्राप्त चौदह मार्गणाओमें आलापोंका वर्णन करते हैं। सत्तण्डं पुढवीणं ओघे मिच्छे य तिण्णि आलावा। पढमाविरदेवि तहा सेसाणं पुण्णगालावो ॥ ७११॥ सप्तानां पृथिवीनामोघे मिथ्यात्वे च त्रय आलापाः । प्रथमाविरतेपि तथा शेषाणां पूर्णकालापः ।। ७११ ॥ अर्थ-सातो ही पृथिवियोमें गुणस्थानोमेंसे मिथ्यात्व गुणस्थानमें तीन आलाप होते हैं । तथा प्रथमा पृथिवीके अविरत गुणस्थानमें भी तीन अलाप होते हैं । शेष पृथिवि. योमें एक पर्याप्त ही आलाप होता है । भावार्थ-प्रथम पृथिवीको छोड़कर शेष छह पृथियोमें सासादन मिश्र असंयत ये तीन गुणस्थान पर्याप्त अवस्थामें ही होते हैं । अतः इन छह पृथिवीसम्बन्धी तीन गुणस्थानोमें और प्रथम पृथिवीके सासादन तथा मिश्रमें एक पर्याप्त ही आलाप होता है शेष स्थानोमें तीनो ही आलाप होते हैं। तिरियचउक्काणोघे मिच्छदुगे अविरदे य तिण्णे व । णवरि य जोणिणि अयदे पुण्णो सेसेवि पुण्णो दु॥ ७१२ ॥ तिर्यक्चतुष्काणामोघे मिथ्यात्वद्विके अविरते च त्रय एव । नवरि च योनिन्ययते पूर्णः शेषेऽपि पूर्णस्तु ॥ ७१२ ॥ अर्थ-तिर्यञ्च पांच प्रकारके होते हैं—सामान्य, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, योनिमती, अपर्याप्त । इनमेंसे अंतके अपर्याप्तको छोड़कर शेष चार प्रकारके तिर्यचोके पांच गुणस्थान होते हैं । जिनमेंसे मिथ्यात्व सासादन असंयत इन गुणस्थानोमें तीन २ आलाप होते हैं। इसमें भी इतनी विशेषता है कि योनिमती तिर्यंचके असंयत गुणस्थानमें एक पर्याप्त आलाप ही होता है । शेष मिश्र और देशसंयतमें भी पर्याप्त ही आलाप होता है । तेरिच्छियलद्धियपजत्ते एको अपुण्ण आलायो। मूलोघं मणुसतिये मणुसिणिअयदम्हिपजत्तो ॥ ७१३॥ तिर्यग्लब्ध्यपर्याप्ते एकः अपूर्ण आलापः । मूलोघं मनुष्यत्रिके मानुष्ययते पर्याप्तः ॥ ७१३ ॥ अर्थ-लव्ध्यपर्याप्त तिर्यंचोके एक अपर्याप्त ही आलाप होता है । मनुष्यके चार भेद हैं । सामान्य, पर्याप्त, योनिमत् , अपर्याप्त । इनमेंसे आदिके तीन मनुष्योंके चौदह गुणस्थान होते हैं । उनमें गुणस्थानसामान्यके समान ही आलाप होते हैं । विशेषता इतनी १ यहां यह शंका नहीं हो सकती कि 'योनिमत् मनुष्यके छठे आदि गुणस्थान किस तरह हो सकते हैं ?' क्योंकि जीवकाण्डमें जीवके भावोंकी प्रधानतासे वर्णन है । अतएव यहभी भावभेदकी अपेक्षा कथन है। गो. ३४ For Private And Personal

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