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गोम्मटसारः ।
२६७ सच्चसुराणं ओघे मिच्छदुगे अविरदे य तिण्णेव । णवरि य भवणतिकप्पित्थीणं च य अविरदे पुण्णो ॥ ७१६ ॥
सर्वसुराणामोघे मिथ्यात्वद्विके अविरते च त्रय एव ।
नवरि च भवनविकल्पस्त्रीणां च च अविरते पूर्णः ॥ ७१६ ॥ अर्थ-समस्त देवोंके चार गुणस्थान सम्भव हैं । उनमें से मिथ्यात्व सासादन अविरत गुणस्थानमें तीन २ आलाप होते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि भवनत्रिक देव और कल्पवासिनी देवी इनके असंयत गुणस्थानमें एक पर्याप्त ही आलाप होता है ।
मिस्से पुण्णालाओ अणुहिसाणुत्तरा हु ते सम्मा। अविरद तिण्णालावा अणुहिसाणुत्तरे होंति ॥ ७१७ ॥ मिश्रे पूर्णालापः अनुदिशानुत्तरा हि ते सम्यञ्चः ।
अविरते त्रय आलापा अनुदिशानुत्तरे भवन्ति ॥ ७१७ ॥ अर्थ-नव ग्रैवेयकपर्यन्त सामान्यसे समस्त देवोंके मिश्र गुणस्थानमें एक पर्याप्त ही आलाप होता है । इसके ऊपर अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी सब देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं; अतः इन देवोंके अविरत गुणस्थानमें तीन आलाप होते हैं । क्रमप्राप्त इन्द्रियमार्गणामें आलापोंको बताते हैं ।
बादरसुहमेइंदियबितिचउरिदियअसण्णिजीवाणं । ओघे पुण्णे तिण्णि य अपुण्णगे पुण अपुण्णो दु ॥ ७१८ ॥ बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिजीवानाम् ।
ओघे पूर्णे त्रयश्च अपूर्णके पुनः अपूर्णस्तु ।। ७१८ ।। अर्थ-एकेन्द्रिय-बादर सूक्ष्म, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंमेंसे जिनके पर्याप्ति-नामकर्मका उदय है उनके तीन आलाप होते हैं। और जिनके अपर्याप्तिनामकर्मका उदय होता है उनके लब्ध्यपर्याप्त ही आलाप होता है । भावार्थ-निर्वृत्यपर्याप्तके भी पर्याप्ति नामकर्मका ही उदय रहता है अतः उसके भी तीन ही आलाप होते हैं ।
सण्णी ओघे मिच्छे गुणपडिवण्णे य मूलआलावा । लद्धियपुण्णे एकोऽपज्जत्तो होदि आलाओ ॥ ७१९ ॥
संश्योघे मिथ्यात्वे गुणप्रतिपन्ने च मूलालापाः । __ लब्ध्यपूर्णे एकः अपर्याप्तो भवति आलापः॥ ७१९ ॥ अर्थ-संज्ञी जीवके जितने गुणस्थान होते हैं उनमेंसे मिथ्यादृष्टि या विशेष गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले के मूलके समान ही आलाप समझने चाहिये । और लब्ध्यपर्याप्तक संज्ञीके एक अपर्याप्त ही आलाप होता है । भावार्थ--संज्ञी जीवोंमेंसे तिर्यञ्चके पांच ही
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