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गोम्मटसारः।
२६१ आहारककी अपेक्षा प्रमत्तमें और समुद्धातकी अपेक्षा सयोगीमें संज्ञीत्रसकाय अपर्याप्त भी होता है। भावयोग आत्माकी शक्तिरूप है यह पहले कहचुके हैं । मन-वचन-कायके निमित्तसे जीवप्रदेशोंके चंचल होनेको द्रव्य योग कहते हैं । इसके तीन भेद हैं, मन वचन काय। इसमें मन और वचनके चार २ भेद हैं-सत्य असत्य उभय अनुभय । काययोगके सात भेद हैं-औदारिक वैक्रियिक आहारक और इन तीनोंकेमिश्र तथा कार्माण । इस प्रकार योगके पन्द्रह भेद होते हैं । इनमेंसे किस २ गुणस्थानमें कितने २ योग होते हैं यह बतानेकेलिये आचार्य सूत्र करते हैं
तिसु तेरं दस मिस्से सत्तसु णव छठ्ठयम्मि एयारा । जोगिम्मि सत्त जोगा अजोगिठाणं हवे सुण्णं ॥ ७०३ ॥ त्रिषु त्रयोदश दश मिश्रे सप्तसु नव षष्ठे एकादश ।
योगिनि सप्त योगा अयोगिस्थानं भवेत् शून्यम् ।। ७०३ ॥ अर्थ-मिथ्यादृष्टि सासादन असंयत इन तीन गुणस्थानोंमें उक्त पन्द्रह योगोंमेंसे आहारक आहारकमिश्रको छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं । मिश्रगुणस्थानमें उक्त तेरहयोगमेंसे औदारिकमिश्र वैक्रियिकमिश्र कार्माण इन तीनोके घटजानेसे शेष दश योग होते हैं । इसके ऊपर छटे गुणस्थानको छोड़कर सात गुणास्थानोंमें नव योग होते हैं, क्योंकि उक्त दश योगोंमेंसे वैक्रियिक योग और भी घट जाता है । किन्तु छठे गुणस्थानमें ग्यारह योग होते हैं; क्योंकि उक्त दश योगोंमेंसे वैक्रियिक योग घटता है और आहारक आहारकमिश्र ये दो योग मिलते हैं। सयोगकेवलीमें सातयोग होते हैं वे ये हैं सत्यमनोयोग अनुभवयोग सत्यवचनयोग अनुभयवचनयोग औदारिक औदारिकमिश्र कार्माण । अयोगकेवलीके कोई भी गुणस्थान नहीं होता। भावार्थ-इस सूत्रमें प्रत्येक गुणस्थानमें कितने २ योग होते हैं उनको बताकर अब वेदादिक मार्गणाओंको बताते हैं । वेदके तीन भेद है, स्त्री पुरुष नपुंसक । ये तीनों ही वेद अनिवृत्ति करणके सवेद भागपर्यन्त होते हैं—आगे किसी भी गुणस्थानमें नहीं होते । कषायके चार भेद हैं । क्रोध मान माय लोभ-इनमें प्रत्येकके अनंतानुबन्धी आदि चार २ भेद होते हैं । इस प्रकार कषायके सोलह भेद होते हैं। इनमेंसे मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थानमें अनंतानुबन्धी आदि चारो कषायका उदय रहता है । मिश्र और असंयतमें अनंतानुबंधीको छोड़कर शेष तीन कषाय रहते हैं। देशसंयतमें प्रत्याख्यान और संज्वलन ये दो ही कषाय रहते हैं । प्रमत्तादिक अनिवृत्तिकरणके दूसरे भागपर्यन्त संज्वलन कषाय रहता है । तीसरे भागमें संज्वलनके मान माया लोभ ये तीन ही भेद रहते हैं-क्रोध नहीं रहता । चौथे भागतक माया और लोभ, तथा पांचमे भागतक बादर लोभ रहता है। दशमे गुणस्थान तक सूक्ष्मलोभ रहता है । इसके ऊपर सर्व गुणस्थान कषायरहित
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