________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
२४५
गोम्मटसारः । क्रमप्राप्त संज्ञिमार्गणाका निरूपण करते हैं ।
णोइंदियआवरणखओवसमं तजवोहणं सण्णा । सा जस्स सो दु सण्णी इदरो सेसिदिअवबोहो ॥ ६५९ ॥ नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमस्तज्जबोधनं संज्ञा।
सा यस्य स तु संज्ञी इतरः शेषेन्द्रियावबोधः ॥ ६५९ ॥ अर्थ-नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमको या तज्जन्य ज्ञानको संज्ञा कहते हैं । यह संज्ञा जिसके हो उसको संज्ञी कहते हैं । और जिनके यह संज्ञा न हो किन्तु केवल यथासम्भव इन्द्रियजन्य ज्ञान हो उनको असंज्ञी कहते हैं । भावार्थ-जीव दो प्रकारके होते हैं एक संज्ञी दूसरे असंज्ञी । जिनके लब्धि या उपयोगरूप मन पायाजाय उनको संज्ञी कहते हैं । और जिनके मन न हो उनको असंज्ञी कहते हैं । इन असंज्ञी जीवोंके यथासम्भव इन्द्रियजन्य ज्ञान ही होता है। संज्ञी असंज्ञीकी पहचान के लिये चिह्नोंका वर्णन करते हैं।
सिक्खाकिरियुवदेसालावग्गाही मणोवलंबेण । जो जीवो सो सण्णी तबिवरीओ असण्णी दु॥६६०॥ शिक्षाक्रियोपदेशालापग्राही मनोऽवलम्बन ।
यो जीवः स संज्ञी तद्विपरीतोऽसंज्ञी तु ॥ ६६० ॥ अर्थ-हितका ग्रहण और अहितका त्याग जिसके द्वारा किया जा सके उसको शिक्षा कहते हैं । इच्छापूर्वक हाथ पैरके चलानेको क्रिया कहते हैं । वचन अथवा चाबुक आदिके द्वारा बताये हुए कर्तव्यको उपदेश कहते हैं । और श्लोक आदिके पाठको आलाप कहते हैं।
जो जीव इन शिक्षादिकको मनके अवलम्बनसे ग्रहण धारण करता है उसको संज्ञी कहते हैं । और जिन जीवोंमें यह लक्षण घटित न हो उनको असंज्ञी कहते हैं।
मीमंसदि जो पुवं कजमकजं च तचमिदरं च। सिक्खदि णामेणेदि य समणो अमणो य विवरीदो ॥ ६६१ ॥
मीमांसति यः पूर्व कार्यमकार्य च तत्त्वमितरच्च ।
शिक्षते नाम्ना एति च समनाः अमनाश्च विपरीतः ॥ ६६१ ॥ अर्थ-जो जीव प्रवृत्ति करनेके पहले अपने कर्तव्य और अकर्तव्यका विचार करै, तथा तत्त्व और अतत्त्वका खरूप समझ सके, और उसका जो नाम रक्खा गया हो उस नामके द्वारा बुलाने पर आसके, उसको समनस्क या संज्ञी जीव कहते हैं। और इससे जो विपरीत है उसको अमनस्क या असंज्ञी कहते हैं।
For Private And Personal