________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
१८४
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । रुष्यति निन्दति अन्यं दुष्यति बहुशश्च शोकभयबहुलः। असूयति परिभवति परं प्रशंसति आत्मानं बहुशः ॥५११॥ न च प्रत्येति परं स आत्मानमिव परमपि मन्यमानः । तुष्यति अभिष्टुवतो न च जानाति हानिवृद्धी वा ॥ ५१२ ॥ मरणं प्रार्थयते रणे ददाति सुबहुकमपि स्तूयमानस्तु ।
न गणयति कार्याकार्य लक्षणमेतत्तु कापोतस्य ॥ ५१३ ॥ अर्थ-दूसरेके ऊपर क्रोध करना, दूसरेकी निन्दा करना, अनेक प्रकारसे दूसरोंको दुःख देना अथवा औरोंसे वैर करना, शोकाकुलित तथा भयग्रस्त होना, दूसरेके ऐश्वर्यादिको सहन न करसकना, दूसरेका तिरस्कार करना, अपनी नानाप्रकारसे प्रशंसा करना, दूसरेके ऊपर विश्वास न करना, अपनेसमान दूसरों को भी मानना, स्तुति करनेवाले पर संतुष्ट होजाना, अपनी हानि वृद्धिको कुछ भी न समझना, रणमें मरनेकी प्रार्थना करना, स्तुति करनेवालेको खूब धन दे डालना, अपने कार्य अकार्यकी कुछ भी गणना न करना, ये सब कपोतलेश्यावालेके चिह्न हैं। पीतलेश्यावालेके चिह्न बताते हैं।
जाणइ कजाकजं सेयमसेयं च सवसमपासी। दयदाणरदो य मिदू लक्खणमेयं तु तेउस्स ॥ ५१४ ॥ जानाति कार्याकार्य सेव्यमसेव्यं च सर्वसमदर्शी ।
दयादानरतश्च मृदुः लक्षणमेतत्तु तेजसः ॥ ५१४ ॥ अर्थ-अपने कार्य अकार्य सेव्य असेव्यको समझनेवाला हो, सबके विषयमें समदर्शी हो, दया और दानमें तत्पर हो, कोमलपरिणामी हो, ये पीतलेश्यावालेके चिह्न हैं । पद्मलेश्यावालेके लक्षण बताते हैं ।
चागी भदो चोक्खो उज्जवकम्मो य खमदि बहुगं पि । साहुगुरुपूजणरदो लक्खणमेयं तु पम्मस्स ॥ ५१५ ॥ त्यागी भद्रः सुकरः उद्युक्तकर्मा च क्षमते बहुकमपि ।
साधुगुरुपूजनरतो लक्षणमेतत्तु पद्मस्य ॥ ५१५ ॥ अर्थ-दान देनेवाला हो, भद्रपरिणामी हो, जिसका उत्तम कार्य करनेका स्वभाव हो, इष्ट तथा अनिष्ट उपद्रवोंको सहन करनेवाला हो, मुनि गुरु आदिकी पूजामें प्रीतियुक्त हो, ये सब पद्मलेश्यावालेके लक्षण हैं।
For Private And Personal