Book Title: Gommatsara Jivakand
Author(s): Khubchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 262
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २४२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । योग्यता के मिलनेको प्रायोग्यलब्धि कहते हैं । अधःकरण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरणरूप परिणामको करणलब्धि कहते हैं । इन तीनों करणोंका स्वरूप पहले कह चुके हैं । इन पांच लब्धियोंमेंसे आदिकी चार लब्धि तो सामान्य हैं - अर्थात् भव्य अभव्य दोनोंके होती हैं, किन्तु करण लब्धि असाधारण है - इसके होने पर निययसे सम्यक्त्व या चारित्र होता है । जब तक करणलब्धि नहीं होती तब तक सम्यक्त्व नहीं होता । उपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति के योग्य सामग्रीको बताकर उसको ग्रहण करनेकेलिये योग्य जीव कैसा होना चाहिये यह बताते हैं। / चदुगदिभवो सण्णी पज्जत्तो सुज्झगो य सागारो । जागा सल्लेसो सलद्धिगो सम्ममुवगमई ॥ ६५१ ॥ चतुर्गतिभव्यः संज्ञी पर्याप्तः शुद्धकश्च साकारः । जागरूकः सल्लेश्यः सलब्धिकः सम्यक्त्वमुपगच्छति ॥ ६५१ ॥ अर्थ – जो जीव चार गतियोंमें से किसी एक गतिका धारक, तथा भव्य, संज्ञी, पर्याप्त, विशुद्धियुक्त, जागृत, उपयोगयुक्त, और शुभ लेश्याका धारक होकर करणलब्धिरूप परिणामों का धारक होता है वह जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है । चत्तारिवि खेत्ताई आउगवंघेण होदि सम्मत्तं । अणुवदमहवदाई ण लहइ देवाउगं मोतुं ॥ ६५२ ॥ चत्वार्यपि क्षेत्राणि आयुष्कबन्धेन भवति सम्यक्त्वम् । अणुव्रतमहाव्रतानि न लभते देवायुष्कं मुक्त्वा ॥ ६५२ ॥ - अर्थ — चारो गतिसम्बन्धी आयुकर्मका बन्ध होजाने पर भी सम्यक्त्व हो सकता है; किन्तु देवायुको छोड़कर शेष आयुक्का बंध होने पर अणुव्रत और महाव्रत नहीं होते । भावार्थ - चारो गतिमें से किसी भी गतिमें रहनेवाले जीवकें चार प्रकारकी आयुमेंसे किसी भी आयुका बंध होने पर भी सम्यक्त्वकी उत्पत्ति हो सकती है - इसमें कोई बाधा नहीं है । किन्तु सम्यक्त्व ग्रहण होनेके अनन्तर अणुव्रत या महाव्रत उसी जीवके हो - सकते हैं जिसके चार आयुकम में से केवल देवायुका बंध हुआ हो, अथवा किसी भी आयुका बंध न हुआ हो । नरकायु तिर्यगायु मनुष्यायुका बंध करनेवाले सम्यग्दृष्टि के अणुव्रत या महात्रत नहीं होते । सम्यक्त्वमार्गणा के दूसरे भेदों को गिनाते हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ण य मिच्छत्तं पत्तो सम्मत्तादो य जो य परिवडिदो । सो सासणोत्ति यो पंचमभावेण संजुत्तो ॥ ६५३ ॥ न च मिध्यात्वं प्राप्तः सम्यक्त्वतश्च यश्च परिपतितः । स सासन इति ज्ञेयः पंचमभावेन संयुक्तः ॥ ६५३ ॥ For Private And Personal

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