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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । तिर्यंच आयुका बंध होगया हो तो चौथे भवमें सिद्ध होता है; किन्तु चतुर्थ भवका अतिक्रमण नहीं करता । यह सम्यक्त्व साधनंत है । क्षायिकसम्यक्त्वका विशेषखरूप बताते हैं ।
वयणहिं वि हेदूहि वि इंदियभयआणएहिं स्वेहिं । वीभच्छजुगुच्छाहिं य तेलोक्केण वि ण चालेज्जो ॥ ६४६ ॥
वचनैरपि हेतुभिरपि इन्द्रियभयानी रूपैः ।
बीभत्स्यजुगुप्साभिश्च त्रैलोक्येनापि न चाल्यः॥ ६४६ ॥ अर्थ-श्रद्धानको भ्रष्ट करनेवाले वचन या हेतुओंसे अथवा इन्द्रियोंको भय उत्पन्न करनेवाले आकारोंसे यद्वा ग्लानिकारक पदार्थों को देखकर उत्पन्न होनेवाली ग्लानिसे किं बहुना तीन लोकसे भी यह क्षायिक सम्यक्त्व चलायमान नहीं होता । भावार्थ-क्षायिक सम्यक्त्व इतना दृढ़ होता है कि तर्क तथा आगमसे विरुद्ध श्रद्धानको भ्रष्ट करनेवाले वचन या हेतु उसको भ्रष्ट नहीं कर सकते । तथा वह भयोत्पादक आकार या ग्लानिकारक पदार्थों को देखकर भी भ्रष्ट नहीं होता । यदि कदाचित् तीन लोक उपस्थित होकर भी उसको अपने श्रद्धानसे भ्रष्ट करना चाहें तो भी वह भ्रष्ट नहीं होता। यह सम्यग्दर्शन किसके तथा कहां पर उत्पन्न होता है यह बताते हैं ।
दसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो हु । मणुसो केवलिमूले पिट्ठवगो होदि सवत्थ ॥ ६४७ ॥ दर्शनमोहक्षपणाप्रस्थापकः कर्मभूमिजातो हि ।
मनुष्यः केवलिमूले 'निष्ठापको भवति सर्वत्र ॥ ६४७॥ अर्थ-दर्शनमोहनीय कर्मके क्षय होनेका प्रारम्भ केवलीके मूलमें कर्मभूमिका उत्पन्न होनेवाला मनुष्य ही करता है, तथा निष्ठापन सर्वत्र होता है । भावार्थ-दर्शनमोहनीय कर्मके क्षय होनेका जो क्रम है उसका प्रारम्भ केवली या श्रुतकेवलीके पादमूलमें (निकट) ही होता है, तथा उसका ( प्रारम्भका ) करनेवाला कर्मभूमिज मनुष्य ही होता है । यदि कदाचित् पूर्ण क्षय होनेके प्रथम ही मरण होजाय तो उसकी (क्षपणकी ) समाप्ति चारों गतियोंमें से किसी भी गतिमें हो सकती है। वेदकसम्यक्त्वका स्वरूप बताते हैं।
दसणमोहुदयादो उप्पजइ जं पयत्थसदहणं । चलमलिणमगाढं तं वेदयसम्मत्तमिदि जाणे ॥ ६४८ ॥ दर्शनमोहोदयादुत्पद्यते यत् पदार्थश्रद्धानम् । चलमलिनमगाढं तद् वेदकसम्यक्त्वमिति जानीहि ॥ ६४८॥
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