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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
ओंका उत्कृष्ट अंतर दृष्टान्तद्वारा बताते हैं । कोई जीव पीत लेश्याको छोड़कर क्रमसे एक २ अन्तर्मुहूर्तमात्रतक कपोत नील कृष्ण लेश्याको प्राप्त हुआ, कृष्ण लेश्याको प्राप्त होकर एकेन्द्रिय अवस्थामें आवली के असंख्यातमे भागप्रमाण पुद्गलद्रव्यपरिवर्तनों का जितना काल हो उतने काल पर्यन्त भ्रमण कर विकलेन्द्रिय हुआ, यहां पर भी उत्कृष्टतासे संख्यात हजार वर्ष तक भ्रमण किया । पीछे पंचेन्द्रिय होकर प्रथम समयसे एक २ अंतर्मुहूर्त में क्रम से कृष्ण नील कपोत लेश्याको प्राप्त होकर पीत लेश्याको प्राप्त हुआ । इस प्रकारके जीवके पीत लेश्याका उत्कृष्ट अंतर छह अंतर्मुहूर्त और संख्यात हजार वर्ष अधिक आवलीके असंख्यातमे भागप्रमाण पुद्गलद्रव्यपरावर्तन है । पद्म लेश्याका उत्कृष्ट अंतर इस प्रकार है कि कोई पद्मश्यावाला जीव पद्मलेश्याको छोड़कर अंतर्मुहूर्त तक पीत लेश्या में रह कर पल्यके असंख्यातमेभाग अधिक दो सागरकी आयुसे सौधर्म ईशान स्वर्गमें उत्पन्न हुआ, वहांसे चयकर एकेन्द्रिय अवस्था में आवलीके असंख्यात मे भागप्रमाण पुद्गलपरावर्तनोंके कालका जितना प्रमाण है उतने काल तक भ्रमण किया । पीछे विकलेन्द्रिय होकर संख्यात हजार वर्ष तक भ्रमण किया । पीछे पंचेन्द्रिय होकर प्रथम समय से लेकर एक २ अन्तर्मुहूर्ततक क्रमसे कृष्ण नील कपोत पीत लेश्याको प्राप्त होकर पद्मलेश्याको प्राप्त हुआ इस तरहके जीवके पांच अंतर्मुहूर्त और पल्यके असंख्यातमे भाग अधिक दो सागर तथा संख्यात हजार वर्ष अधिक आवली के असंख्यातमे भागप्रमाण पुद्गल - परावर्तनमात्र पद्मश्याका उत्कृष्ट अंतर होता है । शुक्ल लेश्याका उत्कृष्ट अंतर इस प्रकार है कि कोई शुक्ल लेश्यावाला जीव शुक्ललेश्याको छोड़कर क्रमसे एक २ अन्तर्मुहूर्ततक पद्म पीत लेश्याको प्राप्त होकर सौधर्म ईशान स्वर्ग में प्राप्त होकर तथा वहां पर पूर्वोक्त प्रमाण कालतक रह कर पीछे एकेन्द्रिय अवस्था में पूर्वोक्त प्रमाण काल तक भ्रमण कर पीछे विकलेन्द्रिय होकर भी पूर्वोक्त प्रमाण काल तक भ्रमण करके क्रमसे पंचेन्द्रिय होकर प्रथम समय से लेकर एक २ अन्तर्मुहूर्त तक क्रमसे कृष्ण नील कपोत पीत पद्म लेश्याको प्राप्त होकर शुक्ल लेश्याको प्राप्त हुआ इसतरह के जीवके सात अंतर्मुहूर्त संख्यात हजार वर्ष और पल्य असंख्यातमे भाग अधिक दो सागर अधिक आवली के असंख्यातमे भागप्रमाण पुद्गलपरावर्तनमात्र शुक्ललेश्या का उत्कृष्ट अंतर होता है ।
॥ इति अंतराधिकारः ॥
क्रमप्राप्त भाव और अल्पबहुत्व अधिकारका वर्णन करते हैं । भावादो लेस्सा ओदयिया होंति अप्पबहुगं तु । दवमाणे सिद्धं इदि लेस्सा वण्णिदा होंति ॥ ५५४ ॥
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