Book Title: Gommatsara Jivakand
Author(s): Khubchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 227
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः । २०७ अधिकक्रमसे इकतीस सागरकी उत्कृष्ट आयुको पूर्ण किया; क्योंकि यद्यपि देवगतिसम्बन्धी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरकी है तथापि यहांपर इकतीस सागर ही ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि मिथ्यादृष्टि देवकी उत्कृष्ट आयु इकतीस सागरतक ही होती है । और इन परिवर्तनोंका निरूपण मिध्यादृष्टिकी अपेक्षासे ही है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि संसार में अर्धपुद्गल परिवर्तनका जितना काल है उससे अधिक कालतक नहीं रहता । इस क्रमसे चारों गति - योंमें भ्रमण करनेमें जितना काल लगे उतने कालको एक भवपरिवर्तनका काल कहते हैं । तथा इतने कालमें जितना भ्रमण किया जाय उसको एक भवपरिवर्तन कहते हैं । योगस्थान अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान कषायाध्यवसायस्थाने स्थितिस्थान इन चारके निमित्तसे भावपरिवर्तन होता है । प्रकृति और प्रदेशबन्धको कारणभूत आत्माके प्रदेशपरिस्पन्दरूप योग के तरतमरूप स्थानोंको योगस्थान कहते हैं । जिन कषायके तरतमरूप स्थानोंसे अनुभागबंध होता है उनको अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान कहते हैं । स्थितिबन्धको कारणभूत कषायपरिणामोंको कषायाध्यवसायस्थान या स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान कहते हैं । बन्धरूप कर्म की जघन्यादिक स्थितिको स्थितिस्थान कहते हैं । इनका परिवर्तन किस तरह होता है यह दृष्टान्तद्वारा नीचे लिखते हैं । श्रेणिके असख्यातमे भागप्रमाण योगस्थानोंके होजानेपर एक अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होता है, और असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबंधाध्यवसायस्थानोंके होजानेपर एक कषायाध्यवसायस्थान होता है, तथा असंख्यात लोकप्रमाण कषायाध्यवसायस्थानोंके होजाने पर एक स्थितिस्थान होता है । इस क्रमसे ज्ञानावरण आदि समस्त मूलप्रकृति वा उत्तरप्रकृतियोंके समस्त स्थानोंके पूर्ण होनेपर एक भावपरिवर्तन होता है । जैसे किसी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि संज्ञी जीवके ज्ञानावरण कर्मकी अंतःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण जघन्य स्थितिका बंध होता है । यही यहांपर जघन्य स्थितिस्थान है । अतः इसके योग्य विवक्षित जीव जघन्यही अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान जघन्य ही कषायाध्यवसायस्थान और जघन्य योगस्थान होते हैं । यहांसे ही भावपरिवर्तनका प्रारम्भ होता है । अर्थात् इसके आगे श्रेणी असंख्यातमे भागप्रमाण योगस्थानों के क्रमसे होजानेपर दूसरा अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान होता है । इसके बाद फिर श्रेणीके असंख्यातये भागप्रमाण योगस्थानोंके क्रम होजानेपर तीसरा अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होता है । इसही क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानोंके होजानेपर दूसरा कषायाध्यवसायस्थान होता है । जिस क्रमसे दूसरा कषाध्यवसायस्थान हुआ उसही क्रमसे असंख्यात लोक प्रमाण कषायाध्यवसाय स्थानों के 1 १ एक ही कषाय परिणाम में दो कार्य करनेका स्वभाव है । एक स्वभाव अनुभाग बंधको कारण है, और दूसरा स्वभाव स्थिति बंधको कारण है । इनको ही अनुभागबंधाध्यवसाय और कषायाध्यवसाय कहते हैं । For Private And Personal

Loading...

Page Navigation
1 ... 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305