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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । गदिठाणोग्गहकिरिया जीवाणं पुग्गलाणमेव हवे । धम्मतिये णहि किरिया मुक्खा पुण साधका होति ॥ ५६५ ॥ गतिस्थानावगाह क्रिया जीवानां पुद्गलानामेव भवेत् ।
धर्मत्रिके नहि क्रिया मुख्याः पुनः साधका भवन्ति ॥ ५६५ ॥ अर्थ-गमन करनेकी या ठहरनेकी अथवा रहनेकी क्रिया जीवद्रव्य या पुद्गलद्रव्यकी ही होती है। धर्म अधर्म आकाशमें ये क्रिया नहीं होती, क्योंकि न तो इनके स्थान चलायमान होते हैं । और न प्रदेश ही चलायमान होते हैं । किन्तु ये तीनो ही द्रव्य जीव पुद्गलकी उक्त तीनों क्रियाओंके मुख्य साधक हैं । भावार्थ-मुख्य साधक कहनेका अभिप्राय यह नहीं हैं कि धर्मादि द्रव्य जीव पुद्गलको गमन आदि करने में प्रेरक हैं; किन्तु इसका अभिप्राय यह है कि जिस समय जीव या पुद्गल गति आदिमें परिणत हों उस समय उनकी गति आदिमें सहकारी होना धर्मादि द्रव्यका मुख्य कार्य है। गति आदिमें धर्मादि द्रव्य किसतरह सहायक होते हैं यह दृष्टान्त द्वारा दिखाते हैं।
जत्तस्स पहं ठत्तस्स आसणं णिवसगस्स वसदी वा। गदिठाणोग्गहकरणे धम्मतियं साधगं होदि ॥ ५६६ ॥
थातस्य पन्थाः तिष्ठतः आसनं निवसकस्य वसतिर्वा । __ गतिस्थानावगाहकरणे धर्मत्रयं साधकं भवति ॥५६६ । अर्थ-गमन करनेवालेको मार्गकी तरह धर्म द्रव्य जीवपुद्गलकी गतिमें सहकारी होता है । ठहरनेवालेको आसनकी तरह अधर्म द्रव्य जीव पुद्गलकी स्थितिमें सहकारी होता है । निवासकरनेवालेको मकानकी तरह आकाशद्रव्य जीव पुद्गल आदिको अवगाह देनेमें सहकारी साधक होता है।
वत्तणहेदू कालो वत्तणगुणमविय दवणिचयेसु । कालाधारेणेव य वटुंति हु सबदवाणि ॥ ५६७ ॥
वर्तमाहेतुः कालो वर्तनागुणमवेहि द्रव्यनिचयेषु । __कालाधारेणैव च वर्तन्ते हि सर्वद्रव्याणि ।। ५६७ ॥ अर्थ-सम्पूर्ण द्रव्योंका यह खभाव है कि वे अपने २ खभावमें सदा ही वर्ते । परन्तु उनका यह वर्तना किसी बाह्य सहकारीके विना नहीं हो सकता इसलिये इनको वर्तानेका सहकारी कारणरूप वर्तनागुण जिसमें पाया जाय उसको काल कहते हैं; क्योंकि कालके आश्रयसे ही समस्त द्रव्य वर्तते है।
मूर्तीक जीव पुद्गलके वर्तनेका सहकारी कारण होना काल द्रव्यमें सम्भव है, परन्तु धर्मादिक अमूर्तीक तथा व्यापक द्रव्योंमें किसतरह घटित होसकता है ? इस शङ्काका समाधान करते हैं।
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