Book Title: Gommatsara Jivakand
Author(s): Khubchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 238
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २१८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-जीव द्रव्य अनन्त हैं । उनसे अनन्तगुणे पुद्गलद्रव्य हैं । धर्म अधर्म आकाश ये एक २ द्रव्य हैं । तथा लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं उतने ही कालद्रव्य हैं । लोगागासपदेसे एकेके जेट्ठिया हु एकेका । रयणाणं रासी इव ते कालाणू मुणेयवा ॥ ५८८॥ लोकाकाशप्रदेशे एकैके ये स्थिता हि एकैकाः ।। रत्नानां राशिरिव ते कालाणवो मन्तव्याः॥ ५८८ ॥ अर्थ-वे कालाणु रत्नराशिकी तरह लोकाकाशके एक २ प्रदेशमें एक २ स्थित हैं, ऐसा समझना चाहिये । भावार्थ-जिसतरह रनोंकी राशि भिन्न २ स्थित रहती है उसी तरह प्रत्येक कालाणु लोकाकाशके एक २ प्रदेशपर भिन्न २ स्थित है। इसी लिये जितने लोकाकाशके प्रदेश हैं उतने ही कालद्रव्य हैं । ववहारो पुण कालो पोग्गलदवादणंतगुणमेत्तो। तत्तो अणंतगुणिदा आगासपदेसपरिसंखा ॥ ५८९ ॥ व्यवहारः पुनः कालः पुद्गलद्रव्यादनन्तगुणमात्रः। ततः अनन्तगुणिता आकाशप्रदेशपरिसंख्या ॥ ५८९ ॥ अर्थ-पुद्गलद्रव्यके प्रमाणसे अनन्तगुणा व्यवहारकालका प्रमाण है । तथा व्यवहार कालके प्रमाणसे अनन्तगुणी आकाशके प्रदेशोंकी संख्या है। लोगागासपदेसा धम्माधम्मेगजीवगपदेसा। सरिसा हु पदेसो पुण परमाणुअवढिदं खेत्तं ॥ ५९० ॥ लोकाकाशप्रदेशा धर्माधर्फकजीवगप्रदेशाः । सदृशा हि प्रदेशः पुनः परमाण्ववस्थितं क्षेत्रम् ॥ ५९० ॥ अर्थ-धर्म, अधर्म, एक जीवद्रव्य, तथा लोकाकाश, इनकी प्रदेशसंख्या परस्परमें समान है । जितने क्षेत्रको एक पुद्गलका परमाणु रोकता है उतने क्षेत्रको प्रदेश कहते हैं। • स्थानखरूपाधिकारका वर्णन करते हैं । सवमरूवी दवं अवढिदं अचलिआ पदेसा वि । रूवी जीवा चलिया तिवियप्पा होंति हु पदेसा ॥ ५९१ ॥ सर्वमरूपि द्रव्यमवस्थितमचलिताः प्रदेशा अपि । __ रूपिणो जीवाश्चलितास्त्रिविकल्पा भवन्ति हि प्रदेशाः ॥ ५९१ ॥ अर्थ-सम्पूर्ण अरूपी द्रव्य जहां स्थित हैं वहां ही सदा स्थित रहते हैं, तथा इनके प्रदेश भी चलायमान नहीं होते । किन्तु रूपी ( संसारी ) जीवद्रव्य चल हैं, तथा इनके प्रदेश तीन प्रकारके होते हैं । भावार्थ-धर्म अधर्म आकाश काल और मुक्त जीव ये For Private And Personal

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