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गोम्मटसारः।
२२९ द्रव्यं षटूमकालं पञ्चास्तिकायसंज्ञितं भवति ।
काले प्रदेशप्रचयो यस्मात् नास्तीति निर्दिष्टम् ॥ ६१९ ॥ अर्थ-कालमें प्रदेशप्रचय नहीं है इसलिये कालको छोड़कर शेष द्रव्योंको ही पञ्चास्तिकाय कहते हैं । भावार्थ-जो सद्रूप हो उसको अस्ति कहते हैं। और जिनके प्रदेश अनेक हो उनको काय कहते हैं । काय दो प्रकारके होते हैं, एक मुख्य दूसरा उपचरित । जो अखण्डप्रदेशी हैं उन द्रव्योंको मुख्य काय कहते हैं । जैसे जीव धर्म अधर्म आकाश । जिसके प्रदेश तो खण्डित हों; किन्तु स्निग्ध रूक्ष गुणके निमित्तसे परस्परमें बन्ध होकर जिनमें एकत्व होगया हो, अथवा बन्ध होकर एकत्व होनेकी जिसमें सम्भावना हो उसको उपचरित काय कहते हैं, जैसे पुद्गल । किन्तु कालद्रव्य खयं अनेकप्रदेशी न होनेसे मुख्य काय भी नहीं है । और स्निग्ध रूक्ष गुण न होनेसे बंध होकर एकत्वकी भी उसमें सम्भावना नहीं है, इसलिये वह ( काल ) उपचरित काय भी नहीं है । अतः कालद्रव्यको छोड़कर शेष जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश इन पांच द्रव्योंको ही पंचास्तिकाय कहते हैं । और कालद्रव्यको कायरूप नहीं किन्तु अस्तिरूप कहते हैं । नव पदार्थोंको बताते हैं
णव य पदत्था जीवाजीवा ताणं च पुण्णपावदुगं । आसवसंवरणिजरबंधा मोक्खो य होतित्ति ॥ ६२० ॥ नव च पदार्था जीवाजीवाः तेषां च पुण्यपापद्विकम् ।
आस्रवसंवरनिर्जराबन्धा मोक्षश्च भवन्तीति ॥ ६२० ॥ अर्थ-मूलमें जीव और अजीव ये दो पदार्थ हैं । इन हीके सम्बन्धसे पुण्य और पाप ये दो पदार्थ होते हैं । इसलिये चारपदार्थ हुए । तथा पुण्यपापके आस्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष ये पांच पदार्थ होते हैं । इसलिये सब मिलाकर नव पदार्थ होते हैं। भावार्थ-जिसमें ज्ञानदर्शनरूप चेतना पाई जाय उसको जीव कहते हैं । जिसमें चेतना न हो उसको अजीव कहते हैं। शुभ कर्मोंको पुण्य और अशुभ कर्मोंको पाप कहते हैं । कर्मोंके आनेके द्वारको, या मन वचन कायके द्वारा होनेवाले आत्मप्रदेशपरिस्पन्दको, अथवा बन्धके कारणको आस्रव कहते हैं । अनेक पदार्थों में एकत्वबुद्धिके उत्पादक सम्बन्धविशेषको अथवा आत्मा और कर्मके एकक्षेत्रावगाहरूप सम्बन्धविशेषको बन्ध कहते हैं । आस्रवके निरोधको संवर कहते हैं । बद्ध कर्मों के एकदेश क्षयको निर्जरा कहते हैं। आत्मासे समस्त कर्मोके छूट जानेको मोक्ष कहते हैं । ये ही नव पदार्थ हैं ।
जीवदुगं उत्तठं जीवा पुण्णा हु सम्मगुणसहिदा । वदसहिदावि य पावा तविवरीया हवंतित्ति ॥ ६२१ ॥
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