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क्रमप्राप्त फलाधिकारको कहते हैं ।
गोम्मटसारः ।
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अर्थ – जो सर्वाशमें पूर्ण है उसको स्कन्ध कहते हैं । उसके आधेको देश और आधे आधेको प्रदेश कहते हैं । जो अविभागी है उसको परमाणु कहते हैं । ॥ इति स्थानस्वरूपाधिकारः ॥
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गदिठाणोग्गह किरियासाधणभूदं खु होदि धम्मतियं । वत्तणकिरिया साहणभूदो नियमेण कालो दु ॥ ६०४ ॥ गतिस्थानावगाहक्रियासाधनभूतं खलु भवति धर्मत्रयम् । वर्तनाक्रियासाधनभूतो नियमेन कालस्तु || ६०४ ॥
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अर्थ – गति, स्थिति, अवगाह, इन क्रियाओंके साधन क्रमसे धर्म, अधर्म, आकाशद्रव्य हैं । और वर्तना क्रियाका साधन काल द्रव्य है । भावार्थ - क्षेत्रसे क्षेत्रान्तकी प्राप्तिकी कारणभूत जीव पुद्गलकी पर्यायविशेषको गति कहते हैं । इस गतिक्रियाका साधन (उदासीन निमित्त ) धर्मद्रव्य है । जैसे जल में मच्छियोंकी गतिक्रिया जलके निमित्तसे होती है । गतिविरुद्ध पर्यायको स्थिति कहते हैं । यह पर्याय जीव पुगलकी होती है । तथा यह स्थितिक्रिया अधर्मद्रव्यके निमित्तसे ही होती है । कहीं पर भी रहने को अवगाह कहते हैं । यह अवगाहक्रिया आकाशद्रव्यके निमित्तसे ही होती है । तथा प्रत्येक पदार्थकी वर्तना क्रिया कालद्रव्य के निमित्तसे होती है । ( शङ्का ) सूक्ष्म पुद्गलादिक भी एक दूसरेको अवकाश देते हैं इसलिये अवगाहहेतुत्व आकाशका ही असाधारण लक्षण क्यों कहा ? ( समाधान ) यद्यपि सूक्ष्म पुद्गलादिक एक दूसरेको अवगाह देते हैं तथापि ये सम्पूर्ण द्रव्यों को अवगाह नहीं दे सकते । समस्त द्रव्यों को अवगाह देनेकी सामर्थ्य आकाशमें ही हैं । इसलिये आकाशकाही अवगाहहेतुत्व यह असाधारण लक्षण युक्त है । यद्यपि अलोकाकाश किसी द्रव्यको अवगाह नहीं देता, तथापि उसका अवगाह देनेका स्वभाव वहां पर भी है । किन्तु धर्मद्रव्यका निमित्त न मिलनेसे जीवादि अवगाह्य पदार्थ अलोकाकाशमें गमन नहीं करते इसलिये अलोकाकाश किसीको अवगाह नहीं देता ।
जीव और पुद्गलका उपकार फल ) बताते हैं ।
अण्णोष्णुवयारेण य जीवा वर्द्धति पुग्गलाणि पुणो । देहादीणिवत्तणकारणभूदा हु नियमेण । ६०५ ॥
अन्योन्योपकारेण च जीवा वर्तन्ते पुद्गलाः पुनः । देहादिनिर्वर्तनकारणभूता हि नियमेन || ६०५ ||
अर्थ-जीव परस्परमें उपकार करते हैं । जैसे सेवक खामीकी हितसिद्धिमें प्रवृत्त होता है, और स्वामी सेवकको धनादि देकर संतुष्ट करता है । तथा पुद्गल शरीरादि उत्पन्न
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