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गोम्मटसारः।
२१५ अर्थ-वर्तमान कालका प्रमाण एक समय है। सम्पूर्ण जीवराशि तथा समस्त पुद्गलद्रव्यराशिसे अनंतगुणा भविष्यत् कालका प्रमाण है । इस प्रकार व्यवहार कालके तीन भेद होते हैं।
कालोविय ववएसो सम्भावपरूवओ हवदि णिचो। उप्पण्णप्पद्धंसी अवरो दीहंतरहाई ॥ ५७९ ॥ कालोऽपि च व्यपदेशः सद्भावप्ररूपको भवति नित्यः ।
उत्पन्नप्रध्वंसी अपरो दीर्घान्तरस्थायी ।। ५७९ ।। अर्थ-काल यह व्यपदेश ( संज्ञा ) मुख्यकालका बोधक है; क्योंकि विना मुख्यके गौण अथवा व्यवहारकी भी प्रवृत्ति नहीं होसकती । यह मुख्य काल द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा नित्य है तथा पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा उत्पन्नध्वंसी है । तथा व्यवहारकाल वर्तनकी अपेक्षा उत्पन्नध्वंसी है और भूत भविष्यत्की अपेक्षा दीर्घन्तरस्थायी है। क्रमप्राप्त स्थिति अधिकारका वर्णन करते हैं।
छद्दवावठाणं सरिसं तियकालअत्थपजाये। वेंजणपज्जाये वा मिलिदे ताणं ठिदित्तादो ॥५८०॥ षड्द्रव्यावस्थानं सदृशं त्रिकालार्थपर्याये ।
व्यंजनपर्याये वा मिलिते तेषां स्थितित्वात् ।। ५८० ॥ अर्थ-अवस्थान=स्थिति छहों द्रव्योंकी समान है । क्योंकि त्रिकालसम्बन्धी अर्थपर्याय वा व्यंजनपर्याय के मिलनेसे ही उनकी स्थिति होती है । भावार्थ-छहों द्रव्य अनादिनिधन हैं; क्योंकि कथंचित् द्रव्य पर्यायोंसे भिन्न कुछभी चीज नहीं है । और इन पर्यायों के दो भेद हैं एक व्यंजनपर्याय दूसरी अर्थपर्याय । वाग्गोचर-वचनके विषयभूत स्थूलपर्यायको व्यंजनपर्याय कहते हैं, और वचनके अगोचर सूक्ष्म पर्यायोंको अर्थपर्याय कहते हैं । ये दोनोंही पर्याय पर्यायत्वकी अपेक्षा त्रिकालवर्ती अर्थात् अनादिनिधन हैं। इस ही अर्थको स्पष्ट करते हैं ।
एयदवियम्मि जे अत्थपजया वियणपजया चावि । तीदाणागदभूदा तावदियं तं हवदि दवं ॥ ५८१ ॥ . एकद्रव्ये ये अर्थपर्याया व्यञ्जनपर्यायाश्चापि ।
अतीतानागतभूताः तवत्तत् भवति द्रव्यम् ॥ ५८१ ॥ अर्थ-एक द्रव्यमें जितनी त्रिकालसम्बन्धी अर्थपर्याय या व्यंजनपर्याय हैं उतना ही द्रव्य है । भावार्थ-त्रिकाल सम्बन्धी संस्थानखरूप ( आकाररूप ) प्रदेशवत्त्वगुणकी पर्याय-व्यंजनपर्याय, तथा प्रदेशवत्त्वगुणको छोड़कर शेषगुणोंकी त्रिकालसम्बन्धी
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