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गोम्मटसारः।
२०१ भावतः षड्लेश्या औदयिका भवन्ति अल्पबहुकं तु।
द्रव्यप्रमाणे सिद्धमिति लेश्या वर्णिता भवन्ति ॥ ५५४ ॥ अर्थ-भावकी अपेक्षा छहों लेश्या औदयिक हैं; क्योंकि योग और कषायके संयो. 'गको ही लेश्या कहते हैं, और ये दोनो अपने २ योग्य कर्मके उदयसे होते हैं। तथा लेश्याओंका अल्पबहुत्व, पहले लेश्याओंका जो संख्या अधिकारमें द्रव्य प्रमाण बताया है उसीसे सिद्ध है। इनमें सबसे अल्प शुक्ललेश्यावाले हैं, इनसे असंख्यातगुणे पद्मलेश्यावाले और इनसे भी संख्यातगुणे पीतलेश्यावाले जीव हैं । पीत लेश्यावालोंसे अनंतानंतगुणे कपोतलेश्यावाले हैं, इनसे कुछ अधिक नील लेश्यावाले और इनसे भी कुछ अधिक कृष्णलेश्यावाले जीव हैं।
॥ इति अल्पबहुत्वाधिकारः ॥
इस प्रकार सोलह अधिकारोंके द्वारा लेश्याओंका वर्णन करके अब लेश्यारहित जीवोंका वर्णन करते हैं।
किण्हादिलेस्सरहिया संसारविणिग्गया अणंतसुहा । सिद्धिपुरं संपत्ता अलेस्सिया ते मुणेयवा ॥ ५५५ ॥
कृष्णादिलेश्यारहिताः संसारविनिर्गता अनंतसुखाः।
सिद्धिपुरं संप्राप्ता अलेश्यास्ते ज्ञातव्याः ॥ ५५५ ॥ अर्थ-जो कृष्ण आदि छहों लेश्याओंसे रहित हैं, अतएव जो पंचपरिवर्तनरूप संसारसमुद्रके पारको प्राप्त होगये हैं, तथा जो अतीन्द्रिय अनंत सुखसे तृप्त हैं, और आत्मोपलब्धिरूप सिद्धिपुरीको जो प्राप्त होगये हैं, उन जीवोंको अयोगकेवली या सिद्धभगवान् कहते हैं। भावार्थ-जो अनंत सुखको प्राप्तकर संसारसे सर्वथा रहित होकर सिद्धि पुरको प्राप्त होगये हैं वे जीव सर्वथा लेश्याओंसे रहित होते हैं अत एव उनको अलेश्य-सिद्ध कहते हैं।
॥ इति लेश्याप्ररूपणा समाप्ता ॥
क्रमप्राप्त भव्यमार्गणाका वर्णन करते हैं।
भविया सिद्धी जेसि जीवाणं ते हवंति भवसिद्धा। तविवरीयाऽभवा संसारादो ण सिज्झंति ॥ ५५६ ॥ भव्या सिद्धिर्येषां जीवानां ते भवन्ति भवसिद्धाः ।। तद्विपरीता अभव्याः संसारान्न सिध्यन्ति ॥ ५५६ ॥
गो. २६
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